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आराधनासार - १०७
गुरोः प्रसादाद्धि सदा सुखेन प्रागल्भमायाति विनेयबुद्धिः।
माधुर्यमाम्रोद्भवमंजराणीमास्वादनात्कोकिलवागिवाशु ।।। ततः सूर्यमित्रेण तौ सद्वस्त्राभरणैः समान्य मम भ्रातृपुत्रौ युवामिति सबध प्रकाश्य आत्मपुर व्रजतमित्युदीर्य च प्रेषितौ। तौ च निजनगर प्राप्य महीपालं विद्वत्तयानुरज्य स्वपद लेभाते सुखेन च तस्थतुः । इतश्च राजगृहे जलांजलिं सूर्याय ददतः सूर्यमित्रस्य करानृपदत्ता मुद्रिकान्त:कमलं पपात। अथ गृहं गतः सूर्यमित्रो मुद्रिका हस्तांगुलावपश्यन् किं नृपस्योत्तरं दास्यामीति व्याकुली बभूव। ततः सुधर्ममुनिमष्टांगनिमित्तकोविदं गत्वा च पर्यनुयोगं चकार । यतिरुवाच । भो द्विज मास्म दुःखं कार्षी: यत्र त्वया जलांजलिः क्षिप्ता तत्र करान्निसृत्य पद्यक्रोशे निपतिता। प्रातः सत्वरं गत्वा गृह्णीथाः। सोपि नान्यथा यतिवचनमिति कृतनिश्चयो निजनिलयमीयिवान्। निशावसाने अंगुलीयकं नलिनांतलब्धवान्। अहो दिगंबरा एव नितरां यदभूतु यद्धविष्यति यच्च वर्तते तत्सर्वं सर्वतो विदति तदहमेतानुपास्य त्रिकालवेदी भविष्यामि इति विमृश्य मतिश्रुतावधिज्ञानलोचनं यतीशं गत्वा कपटेन बवंदे। उवाच च
___ "गुरु के प्रसाद से शिष्य की बुद्धि सुख पूर्वक प्रौढ़ता को प्राप्त हो जाती है। शीघ्र ही विकसित हो जाती है। जैसे आम्रों से उत्पन्न मंजरी (आम्रमंजरी) का आस्वादन करने से कोकिल (कोयल) के वचन शीघ्र ही माधुर्य को प्राप्त हो जाते हैं।"
इसके बाद इन दोनों को विद्या के पारगामी जानकर सूर्यमित्र ने वस्त्राभूषण से उनका सत्कार करके और तुम मेरे ज्येष्ठ भ्राता के पुत्र हो, ऐसा सम्बन्ध प्रकट कर 'तुम दोनों अपने नगर में जाओ। ऐसा कहकर उनको अपने नगर को भेज दिया। वे दोनों स्वकीय नगर में जाकर अपनी विद्वत्ता से राजा को अनुरंजित कर राजपुरोहित पद प्राप्त कर सुख से रहने लगे।
एक दिन राजगृहनगर में सूर्य के लिए जलांजलि देते समय सूर्यमित्र के हाथ की अंगुली से निकलकर राजा के द्वारा दी हुई मुद्रिका कमल के भीतर गिर गई।
घर जाकर सूर्यमित्र ने देखा कि उसकी अंगुली में अंगूठी नहीं है। अहो “मैं राजा को क्या कहूँगा" ऐसा विचार कर सूर्यमित्र आकुल-व्याकुल हो गया। दिन भर सर्वत्र खोज करने पर भी जब अंगूठी नहीं मिली तब संध्या काल के समय अष्टाँग निमित्त को जानने वाले सुधर्म नामक मुनिराज के समीप जाकर उसने पूछा कि मेरी अंगूठी मिलेगी कि नहीं? मुनिराज ने कहा कि "हे द्विज (ब्राह्मण) दुःख मत करो, सूर्य को जलांजलि देते समय तुम्हारी मुद्रिका अंगुली से निकलकर कमलकोश में गिर गई है। प्रात:काल शीघ्र ही जाकर तुम उसे ग्रहण कर लेना।"
सूर्यमित्र भी "मुनिराज के वचन असत्य नहीं होते'' ऐसा निश्चय करके अपने घर चला गया।
प्रात:काल उठकर तालाब के समीप गया और पद्मकोश में अंगूठी प्राप्त कर अत्यन्त आनन्दित हुआ। वह मन में विचारने लगा-“अहो! दिगम्बर साधु ही भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में होने वाले पदार्थ और उनकी सारी पर्यायों को जानने में समर्थ हैं। मैं इनकी उपासना करके त्रिकाल का ज्ञाता बनूंगा।" ऐसा विचार करके उसने मति, श्रुत और अवधि ज्ञान रूपी लोचन के धारी सुधर्म नामक मुनिराज के पास