________________
आराधनासार - १०१
शिवभूतिना विसोढो महोपसर्गः खलु चेतनारहितः।
सुकुमालकोसलाभ्यां च तिर्यक्कृतो महाभीमः॥४९ ।। विसहिओ विसोढः विशेषेण चिदानन्दोत्थपरमसुखामृतरसास्वादबलेन षोढः । कोसौ महोवसग्गो महोपसर्गः महांश्चासौ उपसर्गश्च महोपसर्गः छेदनभेदनमारणादिरूपः । केन विषोढः । सिवभूणा शिवभूतिना। शिवभूति म कश्चिद्राजकुमारस्तेन शिवभूतिना। कीदृशः उपसर्गः।
चेयणारहिओ चेतनारहितः अचेतनैरग्निजलपाषाणशिलापातादिभिः कृतत्वादुपसर्गोप्यचेतन: शिवभूतिना अचेतनमहोपसर्गा यथा सोढास्तत्कथामाख्याति
चंपापुर्यामभूद्धूपो विक्रमः स्मेरविक्रमः। शिवभूतिः सुतस्तस्य शिषवभूतिभूपतिः ।। तदात्वोद्भूतवात्याभिः खंडश: कृतमंबरे। वीक्ष्यान्यदा स सांद्राभं भनसीति विचिंतयत् ॥ थिग धिग भवमिमं यत्र सुखं नैवात्र किंचन । तथापि नैव बुध्यते महामोहा हहागिनः ।। क्षणाप्रध्वंसिनो दुष्टकायस्यास्य कृते कथम् । बहारंभा विधीयते मोहेनाधं भविष्णुभिः॥
चिदानन्द के रसास्वाद से उत्पन्न परम सुखामृत रस के आस्वादी शिवभूति नामक राजकुमार मुनिराज ने अचेतन अग्नि जल, पाषाण, शिलादि के पतन से उत्पन्न अचेतनकृत महा-उपसर्ग सहन किया
था।
चम्पापुरी नगरी में महापराक्रमी विक्रम नामक राजा हुआ था। उस राजा के शिव के समान विभूति बाला शिवभूति नामका पुत्र था। एक दिन वह शिवभूति राजपुत्र अपने महल की छत पर बैठकर आकाश की प्राकृतिक शोभा देख रहा था। उस निर्मल अकाश में मेघों से बने हुए अति रमणीय मन्दिर को एक क्षण में वायु के झकोरों से विघटित होते हुए देखकर मन में चिंतन करने लगा, "अहो! ये सांसारिक सुख, इन्द्रियभोग, वैभव बादल वा बिजली के समान क्षणभंगुर हैं, नाशवंत हैं, संसार में क्षण मात्र वा लेश मात्र भी सुख नहीं है, यह दु:खों से भरा हुआ है। हा! हा! संसार को धिक्कार हो। तथापि ये महामोही प्राणी संसार की अवस्था को नहीं जानते हैं। अहो ! ये मोह से अंधे हुए प्राणी क्षणध्वंसी अपवित्र मल-मूत्र की खान दुष्ट काय के लिए बहु आरम्भ करते हैं। पंचेन्द्रिय-विषय-भोगों के लिए हिंसादि पापों का आचरण करके नरकादि दुर्गतियों में गिरते हैं और महा दुःखों को भोगते हैं। परन्तु आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न नहीं करते हैं।" ऐसा विचार करके शिवभूति राजकुमार ने संसार और शरीर से विरक्त होकर मुनिराज के चरण-कमलों में जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करली।