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आराधनासार- ९५
विशिष्टेन | समभावणणाणचित्त्रेण समभावनज्ञानचित्तेन दुःखे सुखेऽमित्रे मित्रे वने भवनेऽलाभे काचे सुवर्णे समाना भावना समभावना प्रोच्यते । कस्मात् । तदवस्थायां रागद्वेषयोरभावात् । समभावनायां यत्स्वसंवेदनज्ञानं समभावनज्ञानं चित्ते यस्यासी समभावनज्ञानचित्तः तेन समभावनज्ञानचित्तेन । तथा चोक्तं ज्ञानार्णवे
सीधोत्संगे श्मशाने स्तुतिशपनविधी कर्दमे कुंकुमे वा, पल्यंके कंटकाग्रे दृषदि शशिमणी चर्म चीर्णांशुकेषु ।
-शीर्णागे दिव्यनार्यामशमनमवशा स्वस्य चित्तं विकल्पैनलीढं सोयमेकः कलयति कुशलः साम्यलीलाविलासम्॥
ततो नानाविधेषु घोरोपसर्गेषु उपढौकितेषु सत्स्वपि मुमुक्षुणा भुनिना निजचिरदुरर्जितकर्मविपाकं बुद्धा निरुपद्रवशुद्धपरमात्मस्वसंवेदनज्ञानभावनाबलेन शरीरं ममता परिहाय समतामवलंब्य स्थातव्यमिति
तात्पर्यम् ॥४७॥
णाणमयभावणाए भावियचित्तेहिं पुरिससीहेहिं । सहिया महोबसग्गा अचेयणादीय चउभेया ॥ ४८ ॥ ज्ञानमयभावनया भावितचित्तै: पुरुषसिंहैः ।
सोढा महोपसर्गा अचेतनादिकाः चतुर्भेदाः ॥ ४८ ॥
पूर्व में उपार्जन किये हुए कर्मों के उदय से सचेतन, अचेतन आदि अनेक प्रकार के दुःखजनक उपसर्ग आते हैं तो मुनीश्वरों को शत्रु में, मित्र में, सुख में, दुःख में, वन में, भवन में, लाभ में, अलाभ में, काच में और सुवर्ण में समभावना ( समान भावना) ज्ञान वा स्वसंवेदन ज्ञान से अनुरंजित चित्त से (वा) रागद्वेष के अभाव से उन उपसर्गों को सहन करना चाहिए । सोही ज्ञानार्णव में कहा है
ऊँचे-ऊँचे महल और मसान में, स्तुति करने पर और गाली देने पर कीचड़ में और केशर में, पलंग में और कंटक के अग्र भाग में, पत्थर में और चन्द्रकान्त मणि में, चर्म वस्त्र में और रेशमी वस्त्र में, जीर्ण शीर्ण शरीर वाली स्त्री में और दिव्य देवांगना सम सर्वांग सुन्दरी में समता के अभाव में चित्त अनेक प्रकार के विकल्पों से आलीढ़ नहीं हुआ है । अर्थात् जिस प्राणी का मन समता रस से अभिषिक्त है; सुख-दुःख, शत्रु-मित्र आदि विकल्पों से रहित है, वही एक कुशल क्षपक ज्ञानी महापुरुष साम्यभाव की लीला के विलास को प्राप्त कर सकता है और उपसर्गों को सहन कर सकता है, उपसर्ग विजयी हो सकता है।
इसलिए नाना प्रकार के घोरोपसर्ग आने पर भी मुमुक्षु मुनिराज को ये उपसर्ग मेरे पूर्वापार्जित दुष्कर्मोंका विपाक हैं' ऐसा समझकर निरुपद्रव शुद्ध परमात्म स्वसंवेदन ज्ञान भावना के बल से, शरीर की ममता का परित्याग करके और समता का अवलम्बन लेकर सहज शुद्ध आत्मस्वभाव में लीन होना चाहिए। 'ज्ञान भावना से क्या करना चाहिए' ऐसा पूछने पर आचार्यदेव कहते हैं
"ज्ञानमय भावना से भावित (अनुरंजित) चित्त वाले पुरुषसिंह ( श्रेष्ठ पुरुष ) के द्वारा अचेतन आदि चार भेद वाले महा उपसर्गों (उपद्रवों) को सहन करना चाहिए ॥ ४८ ॥