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आराधनासार - ८८
व्याधिप्रतीकारानपेक्षिणः फलमिदमनेनोपायेनानृणी भवामीति चिंतयतो रोगसहनं ।।१६ ॥ तृणगृहणमुपलक्षणं तेन शुष्कतृणपत्रभूमिकंटकफलकशिलादिषु प्रासुकेष्वसंस्कृतेषु व्याधिमार्गशीतादिजनित- श्रमविनोदार्थं शय्यां निषद्यां वा भजमानस्य गमनमकुर्वत: शुष्कतृणपरुषशर्कराकंटकनिशितमृत्तिकादिबाधितमूर्तेरुत्पन्नकंडूविकारस्य दुःखं मनस्यचिंतयतस्तृणस्पर्शसहनं ।।१७।।
रविकिरणजनितप्रस्वेदलवसंलग्नपांसुनिचयस्य सिध्माकच्छूदद्रूभृतकायत्वादुत्पन्नायामपि कंड्डा कण्डूयनमर्दनादिर-हितस्य स्नानानुलेपनादिकमस्मरतः स्वमलापचये परमलोपचये च प्रणिहितमनसो मलधारणं॥१८॥
केशलुंचासंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहनं मलसामान्यसहने ऽतर्भवतीति न पृथगुक्तं । सत्कार; पूजाप्रशंसात्मकः पुरस्कार: क्रियारंभादिष्वग्रतः करणं चिरोषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्वपरसमयज्ञस्य निस्पृह होते हैं, शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने पर भी रंचमात्र भी व्याकुल नहीं होते हैं तथा सौषधि, जल्लौषधि आदि अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न होने पर भी शरीर से निर्मोही होने से रोग के प्रतिकार की इच्छा नहीं करते वे निरन्तर विचार करते हैं कि “यह मेरे असाता कर्म का फल है, इस रोग के निमित्त से मैं कर्म के ऋण (कर्ज) से रहित हो रहा हूँ" ऐसी भावना से जो व्याधि से उत्पन्न आकुलता के अधीन नहीं होते हैं, वे रोग परीषह विजयी कहलाते हैं।।१६।।
___ तृणस्पर्श परोषह में तृण शब्द उपलक्षण मात्र है, अतः तृण शब्द से शुष्क तृण, कंटक, शिला, कठोर मिट्टी आदि को ग्रहण करना चाहिए।
बिना संस्कार किये हुए शुष्क तृण, पत्र, कठोर भूमि, कंटक, फलक, शिलादि पर गमन करनेपर, और शीतादिजनित थकावट को दूर करने के लिए गमन नहीं करते हुए भी शयन वा बैठने रूप क्रिया करने पर शुष्क तृण, कठोर बालूरेत, तीक्ष्ण कंटक, मिट्टी आदि के द्वारा शरीर के बाधित होने पर, खुजली आदि के उत्पन्न होने पर भी जो मन में दुःख का अनुभव नहीं करते हैं उनको तृणस्पर्श सहन (तृणस्पर्श परीषह विजयी) कहते हैं॥१७॥
सूर्य की किरणों के लगने पर शरीर में उत्पन्न पसीने की बूंद में लगकर जमे हुए धूलि के समूह में दाद-खाज-खुजली के उत्पन्न होने पर भी खुजाल, मर्दन आदि नहीं करते हैं, पूर्व में अनुभूत स्नान अनुलेपन आदि का स्मरण नहीं करते हैं और अपने मल के अपचय में तथा दूसरे के मल के उपचयमें ध्यान नहीं देते हैं अर्थात् मेरे शरीर में कितना मैल लगा है- वह कैसे दूर हो, दूसरे का शरीर कितना स्वच्छ है, आदि विचार नहीं करते हैं, वे मल परीषह विजयी होते हैं ॥१८॥
केशलोंच करने से और उनका संस्कार नहीं करने से उत्पन्न खेद को सहन करना मलसामान्य-सहन में अन्तर्भूत हो जाता है, अर्थात् केशलोंच करना, केशों में तैल आदि नहीं लगाने से खुजली आदि होती है उसको सहन करना ये मलपरीषहसहन में गर्भित हो जाते हैं अत: उनका पृथक् कथन नहीं किया है।
पूजा, प्रशंसा करने को सत्कार तथा किसी कार्य के आरम्भ में किसी को प्रधान बना देना पुरस्कार है। लोगों द्वारा सत्कार-पुरस्कार न दिये जाने पर जो मुनि ऐसा विचार नहीं करते कि- मैं परम तपस्वी हूँ।