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आराधनासार - ७७
ननु सामान्यनिर्ग्रथलक्षणमवादि भवद्भिरिदानीं परमार्थनिर्ग्रथस्वरूपं श्रोतुकामोऽहं भगवन् श्रावयेति
वदंतं प्रत्याह
देहो बाहिरगंथो अण्णो अक्खाण विसयअहिलासो । तेसिं चाए खवओ परमत्थे हवइ णिग्गंथो ॥ ३३ ॥
देहो बाह्यग्रंथो अन्यो अक्षाणां विषयाभिलाषः । तयोस्त्यागे क्षपकः परमार्थेन भवति निर्ग्रथः ॥ ३३ ॥
हवइ भवति । कोसौ । खबओ क्षपकः । कथंभूतो भवति । णिग्गंथो निर्ग्रथ: 1
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एको मे शाश्वतश्चात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण: ।
शेषा बहिर्भवा भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥
इति श्लोकार्थाभिप्रायप्रवर्तनतया केवलं निजात्मद्रव्योपादानत्वात्सर्वसंगसंन्यासी । केन परमत्थे परमार्थेन निश्चयेन । किं कृते सति । चाए त्यागे कृते सति । कयोः । तेसिं तयोः । तयोरिति तौ द्वौ प्रत्येकं कथयति । भवति । कोसौं । बाहिरगंथो बाह्यग्रंथ : बाह्यपरिग्रहः । कः सः । देहः शरीरं भवति च । कोसौ । अण्णो अन्यः बाह्यादन्यत्वादन्यः अभ्यंतरग्रंथ इत्यर्थः । स कः । विसयअहिलासो विषयाभिलाषः विषयवांछा। केषां । अक्खाण अक्षाणां इंद्रियाणां परमार्थेन देह एव बाह्यग्रंथः सर्वैः प्रत्यक्षत्वात् परमार्थेनेंद्रियाणां विषयाभिलाष अभ्यन्तरग्रंथः अकायवाग्व्यापारे परेंद्रियैरप्रत्यक्षत्वात्
हे भगवन् ! आपने सामान्य निर्ग्रन्थ के लक्षण का कथन किया। अब परमार्थ-निर्ग्रन्थ के स्वरूप को सुनने की इच्छा करने वाले मुझे परमार्थ-निर्ग्रन्थ का स्वरूप सुनाओ (समझाओ), ऐसा कहने वाले को आचार्य कहते हैं
शरीर बाह्य परिग्रह है और इन्द्रिय-विषयों की अभिलाषा अभ्यन्तर परिग्रह है। इन दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करने वाला क्षपक परमार्थ से निर्ग्रन्थ होता है ॥ ३३ ॥
"ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला (ज्ञाता द्रष्टा ), शाश्वत ( नित्य निरंजन ) एक मैं आत्मा हूँ । ज्ञान - दर्शन ही मेरा स्वरूप है। अन्य जितने भी भाव हैं वे पर-द्रव्य के संयोग से उत्पन्न हुए हैं अतः मुझ से बाह्य हैं।" इस प्रकार विचार करके केवल निज आत्म द्रव्य को उपादान रूप से ग्रहण करता है- वही सर्व संग (सर्व परिग्रह) का त्यागी परमार्थ संन्यासी होता है ।
वास्तव में, शरीर ही बाह्य परिग्रह है, क्योंकि क्षेत्र वास्तु आदि बाह्य परिग्रह के नहीं होने पर भी एकेन्द्रिय आदि जीव परिग्रहवान हैं। यह शरीर बाह्य इन्द्रिय-गोचर होने से सब के प्रत्यक्ष है अतः बाह्य है । स्पर्शन आदि पंचेन्द्रिय विषयों की अभिलाषा है, पंचेन्द्रिय विषयों को ग्रहण करने की इच्छा है वह आभ्यन्तर परिग्रह है- क्योंकि वह अभिलाषा काय और वचन व्यापार से रहित है तथा दूसरों की इन्द्रियों के प्रत्यक्ष नहीं है, दूसरों के द्वारा जानी नहीं जा सकती। इस प्रकार उपर्युक्त दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करने वाला भव्यात्मा ही परमार्थ निर्ग्रन्थ होता है और वह परम निर्ग्रन्थ क्षपक ही स्वस्वरूप का आराधक