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आराधनासार-७५
नन्वेतेन ग्रंथपरित्यागेनात्मनः किं फलं भवतीति वदंतं प्रत्याह
संगच्चाएण फुडं जीवो परिणवइ उवसमो परमो । उवसमगओ हु जीवो अप्पसरूवे थिरो हवइ ॥३१॥
संगत्यागेन स्फुटं जीवः परिणमति उपशमं परमम् ।
उपशमगतस्तु जीव आत्मस्वरूपे स्थिरो भवति ।।३१ ॥ परिणमइ परिणमति प्राप्नोति। कोसौ। जीवो जीवः आत्मा। कं। उवसमो उपशम रागादिपरिहारलक्षणं। कथंभूतं। परमो परमं उत्कृष्टकोटिप्राप्नं । केन कारणेन । संगच्चाएण संगल्यागेन बाह्याभ्यंतरसंगपरित्यागेन फुड स्फुटं निश्चितं । ननु उपशमं प्राप्त आत्मा कथंभूतो भवतीति प्रश्नोत्तरगाह । हवड़ भवति । कोसौ । जीवः । कथंभूतस्तु। उक्समगओ हु उपशमगतस्तु उपशमगतोयं जीवः । कथंभूतो भवति । थिरो स्थिर: प्रचालयितुमशक्यः । क्य | अप्पसरूवे स्वकीये परमात्मस्वरूपे यत उपशमगतोयमात्मस्वरूपे स्थिरीभवति। उपशमस्तु संगत्यागेन जन्यते तत उपशमहेतुभूतं संगत्यागं विधाय परमात्मानमाराधयतेति तात्पर्यार्थः ॥३१॥
इस बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग से आत्मा को क्या फल मिलता है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
हे क्षपक ! परिग्रह का त्याग करने पर ही यह जीव परम उपशम भाव को प्राप्त होता है और उपशम भाव को प्राप्त हुआ जीव आत्मस्वरूप में स्थिर होता है।।३१ ।।
रागादि विकार भावों का त्याग करना उपशम भाव है- उत्कृष्ट प्रशम भाव को परम उपशम भाव कहते हैं। बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने पर ही उपशम भावों को प्रश्न होता है और उपशम भाव को प्राप्त हुआ जीव ही अपने आत्मस्वरूप में स्थिर होने में समर्थ होता है। परिगृह के त्याग से उपशम उत्पन्न होता है। अत: उपशम भाव के विघात में कारणभूत परिग्रह का त्याग करके परमात्मस्वरूप स्व आत्मा की आराधना करनी चाहिए ॥३१॥
४. सोने को सुवर्ण कहते हैं। गाय-भैंस आदि चतुद को धर कहते हैं। ५. गेहूं, चावल, मूंग आदि को धान्य कहते है। ६. स्त्री जाति पानवी को रखकर काम कराया जाता है, वह दासी कहलाती है ७. काम करने वाले पुरुष दास कहलाते हैं। ८.. बस्त्र आदि कुप्य हैं। ९. बर्तन को भाण्ड कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कुप्य शब्द से भाण्ड आदि सबको ग्रहण किया है। १०. जैसे वमन की हुई वस्तु के ग्रहण करने का भाव नहीं होता उसी प्रकार छोड़ी हुई वस्तु के ग्रहण करने का भाव नहीं होना
ही त्याग है।