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आराथनासार-७४
इत्युक्तलक्षणार्हो भूत्वा पुमान् अन्यत् किं कृत्वा निरालंबमात्मानं भावयति इति पृष्ट खित्ता इत्याह
खित्ताइबाहिराणं अभिंतरमिच्छपहुदिगंथाणं । चाए काऊण पुणो भावह अप्पा णिरालंबो ॥३०॥
क्षेत्रादिबाह्यानामभ्यंतर मिथ्यात्वप्रभृतिग्रंथानाम् ।
त्यागं कृत्वा पुनर्भावयतात्मानं निरालंबम् ।।३० ।। भावह भावयत आराधयत। कथं । पुनः। कं। अप्पा आत्मानं । किं विशिष्टं। णिरालंबो निरालंब के क्लस्वस्वरूपावलं बनत्वात्सकलपरद्रव्यचिंताजनितविकल्पपरित्यागेन निर्गतो विनष्ट : पदस्थपिंडस्थरूपस्थरूपातीतादिरूपोप्यालंबो यस्मात् स निरालंबः तं निरालयं । किं कृत्वा चायं काऊण त्याग कृत्वा मुक्तस्य वस्तुनच्छर्दितवत्पुनरादानाभावलक्षणम्त्यागः तं । केषां । खित्ताइबाहिराणं क्षेत्रादिबाह्यानां क्षेत्रवास्नुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासोदासकुप्यभांडबाह्यपरिग्रहाणां । उक्तं च
सयणासणघरछित्तं सुवण्णधणधण्णकुप्पभंडाई।
दुपयचउप्पय जाणसु एदे दस बाहिरा गंथा।। ननु निताई बाहिराणमित्युक्ते ग्रंथशब्दः कुतो लभ्यते। अग्ने प्रयुक्तत्वेनोपलक्षणत्वात् । न केवलं क्षेत्रादिबाह्यगंधानां त्यागं कृत्वा । अन्भंतरमिच्छपहुदिगंथाणं अभ्यंतरमिथ्यात्त्रप्रभृतिग्रंथानां अभ्यंतरेऽशुद्धनिश्चयनयं परित्यज्य शुद्धनिश्चयनय प्रवर्तित आत्मनि मिध्यात्वप्रभृतिग्रंथा मिथ्यात्ववेदगिहास्यादिषड्दोषचतुष्कषायलक्षणाश्चतुर्दश परिग्रहास्तेषां। 3 च
मिच्छत्तवेयराया हासादीया य तह य छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया अभंतर चउदसा गंथा ।। बाह्याभ्यंतरपरिग्रहं त्यक्त्वा निरालंबमात्मानमाराधय इति तात्पर्यम् ॥३०॥ इस प्रकार के लक्षण वाली 'अहाँ योग्यता) को प्राप्त करने वाला मानव अन्य किन-किन कारणों को प्राम करके बिलम्ब आत्मा के ध्यान योग्य होता है, ऐसा पूछने पर आचार्यदेव कहते हैं -
संगत्याग प्रकरण : जिसने क्षेत्रादि बाह्य और मिथ्यात्वादि अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर दिया है, वही भव्यात्मा निरवलम्ब शुद्धात्मा का ध्यान करने के योग्य पात्र होता है ।।३०।।
केवल स्वरूप का अवलम्बन होने, पर-द्रव्य की चिंता के सभी विकल्पों का त्याग होने से और पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपय और सपालत रूप ध्यान का अवलम्ब नष्ट हो जाने से आत्मा में निरवलम्ब ध्यान होता है। क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य'. सुवर्ण', धन", धान्य, दासो, दास', कुप्य और भाण्ड -ये दस बाह्य परिग्रह हैं। कहा भी है-शयन, आसन. घर, क्षेत्र, सुवर्ण, धन, धान्य, कुप्य, भाण्ड, द्विपद, चतुष्पद ये दश प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नसक्वेद, क्रोध.मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व ये १४ अभ्यन्तर परिग्रह हैं।
इन चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करके हे शपक ! निरवलम्ब आत्मा का ध्यान करो। अथवा अभ्यन्तर में अशुद्धनिश्चय भय सपदि भावे) को स्थान का स्वरमान कामा पाशाह का स्थान कहलाता है।३०) १. जिसमें खेती की जाती है, उसे क्षेत्र कहते हैं। २. घर को वास्तु कहते हैं। ३. चांदी को हिरण्य कहते हैं।