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आचार्य दोनों हाथों को सिर पर रखकर संघस्थ मुनिराजों को नमस्कार के विनम्र भावों से कहता है कि "हे साधो! मैंने आपपर अनुशासन करते समय राग, द्वेष, ममत्व और स्नेहके वशीभूत होकर आपको कटु वचन कहे हों, आपका निरादर किया हो तो मन-वचन-काय से आपसे क्षमायाचना करता हूँ। आप सब लोग मुझे क्षमा करें। इस प्रकार क्षमायाचना की विधि को कामना करते हैं।
(१४) अनुशिष्टि - जिन्होंने आचार्यपद का त्याग कर दिया है, सबसे क्षमायाचना करली है ऐसा समाधिमरण का इच्छुक साधु अपने शिष्यों को आगमानुसार उपदेश देता है, जिसको आचार्य पद दिया है उसे व्यवहार की विधि का ज्ञान कराना अनुशिष्टि है।
(१५) परगणचर्या - परिणामों की निर्मलता, कलह-विषाद-आज्ञाभंग से होने वाले संक्लेश परिणाम और संघ के शिष्यों के प्रति होने वाले ममत्व को दूर करने के लिए 'समाधि करने का इच्छुक साधु परगण में जाने की इच्छा करता है। यह पर-गणचर्या है।
(१६) मार्गणा - समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य की खोज करना मार्गणा है। (१७) सुस्थिति - परोपकारी आचार्य वा समाधि की साधना कराने योग्य आचार्य का आश्रय
लेना।
(१८) उपसंपदा - ऐसे योग्य आचार्य के चरणमूल में जाना।
(१९) परीक्षा - समाधि धारण करने का इच्छुक जिस गण में गया है वह उस आचार्य की क्रिया, व्यवहार, चारित्र आदि की परीक्षा करता है और परगणस्थ आचार्य आगन्तुक क्षपक के रत्नत्रय की क्रिया में उत्साह, आहार आदि की आसक्ति की परीक्षा करता है। अर्थात् क्षपक और निर्यापक एक दूसरे की परीक्षा करते हैं। अथवा क्षपक की समाधि निर्विघ्न होगी कि नहीं इसको निमित्त के द्वारा जानना भी परीक्षा है।
(२०) प्रतिलेखन या निरूपण - जिस स्थान पर समाधिमरण करना है उस क्षेत्र का, वहाँ के राजा का, तत्रस्थ श्रावकों का निरीक्षण करना अथवा निमित्त ज्ञान के द्वारा क्षेत्र, राज्य, देश आदि का शुभाशुभ जानना प्रतिलेखन है।
(२१) पृच्छा - समाधि के इच्छुक साधु को स्वीकार करते समय अपने संघ से पूछना, उनकी अनुमति लेना पृच्छा कहलाती है।
(२२) एकसंग्रह - निर्यापक आचार्य एक समय एक क्षपक को ही ग्रहण करते हैं, दो तीन क्षपक एक साथ ग्रहण नहीं करते क्योंकि अधिक क्षपकों को एक साथ समाधि देने से उनकी वैयावृत्ति आदि में व्यवधान होने से क्षपक के परिणामों में संक्लेश होकर समाधि बिगड़ सकती है।
(२३) आलोचना - रत्नत्रय की शुद्धि का इच्छुक क्षपक निशल्य होकर स्वकीय दोषों को गुरु