SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ____ 48 कमलिनी के तौर पर लतामण्डल में फूलों की शय्या पर यह कौन ध्यान से एकाग्रमन होकर दोनों नेत्र कर रोमाञ्च को छोड़ रहा है । हाँ मुझे ज्ञात हो गया । विरह काल में सैकड़ो मनोरथों से प्रेयसी का प्रत्यक्ष कर गाढ़ आलिंगन के समय मिलन के उत्सव रूपी रस के व्यापार में पारंगत ॥53।। (देखकर) क्या यह पवनंजय ही हो गया है ? यह हाथी के कण्ठ में पड़ी हुई रस्सी के घिसने से हुए घाव को प्रकट करने वाला जाद्वय है । प्रत्यञ्चा के आघात की सूचक बहुत सारे युद्धो को करने से जिसका आधाभाग श्याम हो गया है, ऐसी वह यह कलाई है । ललाट पर वह यह रेखा विजधार्द्ध की एकमात्र माज्य लपी डो का रही है ! समस्त शत्रओं के समूह के प्रभाव को नष्ट करने वाला तेज भी यही है ||54॥ (आँखो में आँसू भरकर) तो कैसे इन्हें आश्वस्त करूंगा।(सोचकर) इस प्रकार शोचनीय अवस्था को प्राप्त इसके आश्वस्त करने का अन्य उपाय नहीं है । इस प्रकार हुए अंजना के पति को आश्वस्त करने के योग्य एकमात्र वही है 155|| तो इस समय और क्या विलम्ब किया जाय । अस्तु । ऐसा हो (इस प्रकार प्रतिसूर्य चला जाता है) (अनन्तर अंजना ओर वसन्तमाला प्रवेश करती है) अजंना -सनि वसन्तपाला, अपने मन्दभाग्य को जानते हुए आज भी आर्यपुत्र के दर्शन की सम्पावना के प्रति मेरा हृदय विश्वास नहीं करता है। बसन्तमाला - विश्वास न करने वाली, क्या महाराज प्रतिसूर्य अन्यथा कहते हैं। अत: युवराज्ञी जल्दी कीजिए। (दोनो घूमती हैं ।) वसन्तमाला - (सामने निर्देशकर) युवराज्ञी यह चन्दन का लतागृह है, इसमें दोनों प्रवेश करें। (दोनों प्रवेश करतो हैं ।) अंजन्म - (देखकर, विषाद सहित सहसा समीप में जाकर गले लगाती है) बसन्तमाला - (आंखों में आंसू भरकर) हूं, यह क्या है (दोनों चरणों में गिरती है) पवनंजय - (अपनी इच्छा से आलिंगन करते हुए स्पर्श का अभिनय कर उच्छ्वास सहित) यह फूलों के समान बाहुयुगल वही है, मेरी प्रेयसी का पुष्ट स्तनतटयुगल वहीं है । क्या मेरे संकल्प फलीभूत हो गये हैं ? क्या यह मनीभ्रान्ति है? क्या यह स्वप्न है ? अस्तु, मैं नेत्र नहीं खोलूंगा । 1561 अंजना - (आँखों में आँसू भरकर) अघत्या मेरे द्वार। आर्यपुत्र इस दशा को ले जाएं गए। पवनंजय - (उत्कण्ठा के साथ) प्रिया के दर्शन के कौतूहल से युक्त मेरा यह मन शीघ्रता करा रहा है। अस्तु ! धीरे-धरि आँखें खोलकर देखता हूँ (उसी प्रकार देखकर, हर्ष और विस्मय के साथ) क्या भाग्य से स्वयं प्रिया मिल गई । (अपने प्रति)
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy