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के चालीसवें पद्म में कहा गया है कि हाथी से मुठभेड़ में जीतने से पाण्ड्य राजा ने सौ श्लोकों में उनकी उपलब्धि का गुणगान कर गौरवान्वित किया । इस प्रकार लेखक की उपाधि हस्तिमल्ल थी । इस बात का पता नहीं चलता कि हाथी को पराजित करने से पूर्व उनका असली नाम क्या था ? अय्यपार्य ने हाथी सम्बन्धी घटना का उल्लेख जिनेन्द्र कल्याण चम्पू में किया है । नेमिचन्द्र या ब्रह्मसूरि के प्रतिष्ठातिलक के अनुसार हस्तिमल अपने विरोधी रूपी गजों को पराजित करने वाले सिंह थे। इससे यह बात सन्देहास्पद लगती है कि हस्तिमल्ल नाम पागल हाथी को वश में करने के कारण पड़ा था, अपितु इससे यह द्योतित होता है कि शास्त्रार्थों में सुप्रसिद्ध विरोधी विद्वानों को पराजित करने के कारण ये हस्तिमल्ल कहलाए।
अपने कुछ नाटकों को प्रस्तावना में हस्तिमल्ल ने अत्यधिक आत्मश्लाघा की है । वे अपने आपको सरस्वती का स्वयंवृत पति तथा कविश्रेष्ठ कहते हैं । मैथलो कल्याण नाटक में उनके बड़े भाई सत्यवाक्य उन्हें कविता साम्राज्य लक्ष्मीपति कहते हैं । अञ्जना पवनञ्जय के अन्त में एक पद्य है, जहाँ लेखक को कविचक्रवर्ती कहा गया है । मैथली कल्याण नाटक की प्रशस्ति में उन्हें विजित विषण बुद्धि सूक्ति रत्नाकर और दिक्षु प्रथित विमलकीर्ति कहा गया है। एक पद्य में उन्हें 'सूक्तिरत्नाकर' नाम को प्राप्त कहा गया है। अय्यपार्य हस्लिमल्ल को अशेषकविराज चक्रवर्ती कहते हैं। इन सब विशेषणों से स्पष्ट घोसित होता है कि हस्तिमल्ल को उनके समकालीन और पश्चाद्वर्तियों द्वारा क्या प्रतिष्ठा प्राप्त थी । .
. प्रतिष्ठा तिलक के रचलिता ब्रह्मसूरि (या नेमीचन्द्र) जो कि हस्तिमल्ल के वंश से सम्बन्धित है, के अनुसार हस्तिमल्ल के एक पुत्र था, जिसका नाम पाश्वं पण्डित था । श्रीमनोहरलाल शास्त्री का कहना है कि राजावली कथा के अनुसार हस्तिमल के अनेक पुत्र थे, जिनमें पारवंपण्डित सबसे बड़े थे । उनके एक शिष्य का नाम लोकचालार्य था । किसी कारण पार्श्व पण्डित होयसल राज्य के अन्तर्गत छत्रत्रयपुरी में अपने सम्बन्धियों के साथ जाकर रहने लगे । उनके तीन पुत्र थे चन्द्रम, चन्द्रनाथ तथा वैजव्य 1 चन्द्रनाथ और उसका परिवार हेमाचल में रहा, जबकि अन्य भाई अन्यत्र चले गए । ब्रह्मसूरि चन्द्रप के पौत्र थे । चन्द्रप हस्तिमल्ल के पत्र थे । हस्तिमल्ल गृहस्थ थे, वे मुनि नहीं हुए थे । नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठातिलक में उन्हें गृहाश्रमी कहा है । । अञ्जनापवनंजय नाटक की कथावस्तु
इस नाटक में विद्याधर राजकुमारी अञ्जना का स्वयंवर तथा उसका विद्याधर राजकुमार पत्रनंजय के साथ विवाह वर्णित है । उन दोनों के हनुमान का जन्म होता है। प्रथम अङ्कमहेन्द्रपुर में अञ्जना के स्वयंवर की तैयारी हो रही है । विद्याधर राजा प्रह्लाद के पुत्र नायक पवनंजय ने एक बार नायिका अञ्जना को देखा था और वह उससे प्रेम करने लगा था । अञ्जना अपनो सखी वसन्तसेना और परिचारिका मधुकरिका तथा मालतिका के साथ प्रवेश करती है । उनको बातचीत का विषय आगामी स्वयंवर और उसका परिणाम है । बालिकायें एक कृत्रिम स्वयंवर का अभिनय करती हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वसन्तमाला, जो कि अञ्जना का अभिनय कर रही है, पवञ्जय बनी हुई अञ्जना के गले में माला पहिना देती है। पवनञ्जय, जो कि अपने मित्र प्रहसित (विदूषक) के साथ इस दृश्य को छिपकर देख रहा था, अव आगे आ जाता है और अञ्जना का हाथ पकड़ लेता है, किन्तु अञ्जना की माँ उसे स्नान के लिए बुला लेती है और वह अपनी सखियों के साथ चली जाती है। पवनंजय और विदूषक भी भोजन करने चले जाते हैं ।