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________________ ___26 अरे, अविशद पाणी को कठिनाई पूर्वक बाँधकर उपहास को प्राप्त हुआ कुकवि के समान पद-पद पर पुनः पुनः स्खलित हो रहा हूँ । निराबाध मन याला हो मैं मृदु कदम रखता हुआ वृद्धावस्था पाकर भी प्रौढ़ कवि की समता को प्राप्त हो गया हूँ | |2|| अथवा - प्रत्येक नए आम से निकलते हुए कोमल पत्ते को चाहने वाली बाला सुकुमार हाथ के अग्रभाग से कर्णमुल में बिखरे हुए पत्ते से क्या बना रही है ? कहींकहीं पर वृद्धावस्था भी निन्दा के योग्य हो गई । ।३॥ (सामने देखकर) यह गोपुर है । इससे निकलकर शाखानगर में प्रवेश करता हूँ। (घुमकर) मैं शाखानगर में प्रविष्ट हुआ हूँ । (सामने देखकर) यह क्रूर विद्याधर भैरष का सेवक हिंन्तगलक प्रकट रूप से विकसित नीलकमल के ढेर के बन्धन से युक्त अग्रहस्त वाला शीघ्र ही इधर से दौड़ रहा है । तो मैं इसे बुलाता हूँ । रे-रे हिन्तालक । (यथानि . पा हलका इशार चेट - (देखकर) कैसे आर्य लब्धभूति स्वयं आकर मुझे बुला रहे हैं । (समीप में जाकर) स्वामी, यह मैं नमस्कार करता हूँ (प्रणाम करता है) । कञ्चुकी - हिन्ताल, मेरे वचनों के अनुसार क्रूर को यही बुलाओ । चेट - स्वामी, उसका आप जैसों के बोलने का यह अवसर नहीं है। कम्युकी - क्या ? चेट - (हाथ से निर्देश कर) भट्टारक, यह चन्द्रमा के बिम्ब के सदश भैरवी चक्र के कपाल से युक्त बायें अग्रहस्त वाला, घरिका के घर निर्घोष से मुखर चरण युगल वाला, उमरु को पीटने में चञ्चल दक्षिण हाथ वाला, स्कन्ध प्रदेश पर त्रिशूलदणु, धारण किए हुए, लाल चन्दन के तिलक से शोभित ललाटपट्ट वाला, जपा कुसुम के समान भंयकर लाल नेत्रों वाला विद्याधर भैरव भैरव के समान विद्यमान है । और यह क्रूर स्वामी सुदुलभ, सुगन्धित मदिरा को पीकर नाचता है, गाता है, घूमता है, स्खलित होता है और अकारण ही हैंसता है |4|| कञ्चुकी - (देखकर) कैसे मदोन्मोह उमड़ा हुआ है : क्योंकि कुछ अन्तरङ्ग को चिन्ता से झुके हुए मुख वाले बैठे हुए हैं । पुनः मुहूर्त प्पर के लिए यो कुछ वस्तु ढूंढते हुए विहार कर रहे हैं । परस्पर में हाथ पोट कर अकस्मात् आश्चर्यान्वित हो हंसते हैं । हाथी के समान मदमत्त यह मदिरा के जलकणों को छोड़ रहा है ।।5।। (घृणा पूर्वक) दूसरे के भोजन के प्रति आसक्ति निश्चित रूप से उद्वेग उत्पन्न करने वाली होती है, जो कि मुझे भी इन निकृष्ट चेष्टा वालों के साथ बोलना पड़ता है । हे हिन्तालक यहाँ पर क्या करना चाहिए । चेट - भट्टारक, जब तक इसके मद की समाप्ति नहीं हो जाती, तब तक आपको इस पुराने उद्यान में प्रतीक्षा करना चाहिए । कञ्चुकी - वैसा ही करते हैं । (चला जाता है) सपना सशानिर्दिष्ट कर विद्याधर भैरय प्रवेश करता है ।
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
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