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14 पवनंजय .......मस्कराकर) कक नर्स। ........... वसन्तमाला - (हंसी के माथ) अरे भूरे बन्दर, स्वप्न में भी लाओं को नहीं मूलते हो। विदूषक - (कोप के साथ) मित्र, यह दासी की पुत्री आप दोनों के आगे भो मेरा तिरस्कार
करती है । अतः यहाँ ठहरने से क्या ?
(क्रोध के साथ उठता है) अंजना . (मुस्कराहट के माथ) आर्य, मत, ऐसा मत करो । यह अविनीत है । क्षमा
करो । पवनंजय - मित्र, प्रिया रोक रहो है 1
(विदुषक मानों न सुन रहा हो, इस प्रकार शीघ्र चला जाता है) यमन्तमाला - हूँ, कुपित हुए आर्य प्रहमित चले गए । सो चलकर इसे मनाती हूँ। (विदूषक
के समीप जाकर) आर्य मत कुपित हो, मत कुपित हो । विदूषक - माननीया, यदि मेरी निद्रा भङ्ग नहीं करोगो तो कुपित नहीं होऊँगा । वसन्तमाला - (जो आर्य को रुचिकर लगे)। विदूषक - जब तक मैं इस बकुस्त के चबूतरे पर नींद लेता हूँ। घसन्तमाला - आर्य ठीक है । मैं भी इश्वर-उधर मलय पवन का सेवन करती हूँ। विदूपक - माननोया वसन्तमाला, मुझे यहाँ अकेले सोने में डर लग रहा है । अतः तुम
दर नहीं निकल आना । वसन्तमाला - (मुस्कराकर) आर्य, वैमा हो करेंगी । विस्वस्त होकर सोइए ।
(विद्यक नींद लेता है) पवनंजय - हूँ प्रिये, यह स्थान एकान्त और रमणोय है । तो इस समय भी अभिलषित
विश्वास के अवरोधक लज्जारूपी रस में तुम्हारी यह अनुरक्ति कौनसी है।
(अंजना लज्जा का अभिनय करती है ।) पवनंजय - (अनुरोध पूर्वक)
तुम अपने अङ्गों को आलिङ्गन हेतु क्यों नहीं देती हो ? मुख रूपी चन्द्रमा को पान करने के लिए क्यों अर्पित नहीं करतो हो? मेरे दर्शन पथ में दष्टि क्यों नहीं डालती हो ? बोलती क्यों नहीं हो, देवि । निरुद्धकण्ठ क्यों हो?
15॥ (नेपथ्या में महान् कोलाहल होता है। विदूषक -
(घबड़ाहटपूर्वक जागकर और उठकर) वसन्तमाला बनाओ, बचाओ ।
(घबड़ाई हुई प्रवेश करके) वस्तमाला - आर्य मत इरो।
अंजना (घबड़ाहट के साथ) हूँ. या क्या है । विदुषक - मैं यहाँ ठहरने से दुर रहा हूँ । ती महाराज के पास आओ ।
{समीप में जाते हैं ।) पवनंजय - (सोचकर) तान के प्रस्थान की भेसे का शब्द कहाँ से । विदूषक - ऐसा होना चाहिए । पवनजय - विजयाई की गुफा से निकलने वाला, गुफा द्वार को प्रतिध्वनित करता हुआ,
ऊपर की ओर गर्दन किए हुए मेघ की ध्वनि के उत्सुक पालतू पोरों को नचाता हुआ, शत्रुक्षत्रियों के कुलक्षय का एकमात्र सूचक.सम्पूर्ण रूप में आकाश
नसा है।