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प्रकाशकीय ===
चिरंतन काल से भारत मानस समाज के लिये मूल्यवान विचारों को खान बना हुआ है। इस भूमि से प्रकट आत्मविधा एवं तत्व ज्ञान में सम्पूर्ण विश्व का नव उदात्त दृष्टि प्रदान कर उसे पतनोमुखी होने से बचाया है । इस देश से एक के बाद एक प्राणवान प्रवाह प्रकट होते रहे । इस प्राणवान बहूमूल्य प्रवाहों की गति की अविरलता में जैनाचार्यों का महान योगदान रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विश्व को आदिम सम्यता और संस्कृति के जानने के उपक्रम में प्राचीन भारतीय साहित्य की व्यापक खोजबीन एवं गहन अध्यनादि कार्य सम्पादिक किये गये। बीसवीं शताब्दी के आरम्य तक प्राच्यवाङ्मय की शोध, गन्नौज व अध्ययन अनुशीलनादि में अनेक जैन-अजैन विद्वान भी अग्रणी हुए । फलत: इस शताब्दी के मध्य तक जैनाचार्य विरजित अनेक अंधकाराच्छादिक मूल्यमान अन्वरल प्रक्षा में आटे
में : जीवन की युगोन समस्याओं को सुलझाने का अपूर्व सामर्थ्य है। विद्वानों के शोध-अनुसंधान-अनुशीलन कार्यों को प्रकाश में लाने हेतु अनेक साहित्यक संस्थाए उदित भी हुई, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में साहित्य सागर अवगाहनरत अनेक विद्वानों द्वारा नयसाहित्य भी सृजित हुआ है, किन्तु जैनाचार्य-विरजिप्त विपुल साहित्य के सकल ग्रन्थों के प्रकाशनार्थ अनुशीलनार्थ ठक्त प्रयास पयाप्त नहीं हैं । सकल जैन वापय के अधिकांश ग्रन्थ अब भी अप्रकाशित हैं, जो प्रकाशित भी है तो शोधार्थियों को बहुपरिश्रमोपान्त भी प्राप्त नहीं हो पाते हैं । और भी अनेक बाधायें समस्याएँ जैन ग्रन्थों के शौध-अनुसन्धान प्रकाशन के माग में है, अत: समस्याओं के समाधान के साथ-साथ विविध संस्थाओं-उपक्रमों के माध्यम से समेकित प्रयासों की आवश्यकता एक लम्बे समय से विद्वानों द्वारा महसूस की जा रही थी।
राजस्थान प्रान्त के महाकवि भूरामल शास्त्री (आ. ज्ञानसागर महाराज) की जन्मस्थली एवं कर्म स्थली रही है । महाकव ने चार-चार संस्कृत महाकाव्यों के प्रणयन के साथ हिन्दी संस्कृत में जैन दर्शन सिद्धान्त एवं अध्यात्म के लगभग 24 ग्रन्थों की रचना करके अवरुद्ध जैन साहित्यभागीरथी के प्रवाह को प्रवर्तित किया । यह एक विचित्र संयोग कहा जाना चाहिये कि रससिद्ध कवि की काव्यस्स धारा का प्रवाह राजस्थान की मरुधरा से हुआ । इसी राजस्थान के भाग्य से भ्रमण परम्परोनायक सन्तशिरोमाणी आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्य जिनवाणी के यथाथ उद्घोषक, अनेक ऐतिहासिक उपक्रमों के समर्थ सूत्रधार, अध्यात्मयोगी युवामनीषो पू. मुनिपुंगव सुधासागर जी महाराज का अहाँ पदार्पण हुआ । राजस्थान की धरा पर राजस्थान के अमर साहित्यकार के समप्रकृतित्य पर एक अखिल भारतीय विद्वत संगोष्ठी सागानेर में दिनांक 9 जून से 11 जून, 1994 तथा अजमेर नगर में महाकवि महनीय कृति "वीरोदय"महाकाव्य पर अखिल भारतीय विद्वत् संगोष्ठी दिनांक 13 से 15 अक्टूबर 1994 तक आयोजित हुई व इसी सुअवसर पर दि. जैन समाज, अजमेर ने आचार्य ज्ञानसागर के सम्पूर्ण 24 ग्रन्थ मुनिश्री के 1994 के चार्तुमास के दौरान प्रकाशित कर/लोकार्पण कर अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम करते श्रुत की महत् प्रभावना की । पू. मुनि श्री के सानिध्य में आयोजित इन संगोष्ठियों में महाकवि के कृतित्व पर अनुशीलनात्मक आलोचनात्मक, शोधपत्रों के वाचन सहित विद्वानों द्वारा जैन साहित्य के शोध क्षेत्र में आगत अनेक समस्याओं पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा शोध छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने, शोधार्थियों को शोध विषय सामग्री उपलब्ध कराने, ज्ञानसागर वाङ्मय सहित सकल जैन