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________________ विदूषक - हे मित्र, इधर से गिरते हुए किजल्क के फूलों के समूह से जिसके पंखों का समूह पोला-पीला हो रहा है वेशभूषा को ग्रहण किए हुए सी कोयल आम के शिखर पर चढ़कर गा रही है, जरा देखो । इधर स्पष्ट रूप से अलग की हुई कली रूपी सैकर का में भरे हुए शहद के र: क रने से मद के समूह से युक्त राजकीय तोता वकुलबीथों में सहचरो के साथ बिहार कर रहा है । इधर प्रत्येक नए विकसित फूलों के आसव के लोभ से घूमते हुए भौरों की झंकार से सुन्दर नवमालिका लुब्ध कर रही है । इधर हरीहरी पत्रलता से दिन में रात्रि को आशंका से चकवे के समूहों के द्वारा आसपास की भूमि छोड़ी जा रही है । नए-नए मेघों के उद्गम से लुब्ध हुए भोले-भाले पपीहों के बच्चों के द्वारा बहते हुए मधु की बूंदें पी जा रही है । आवाज से मुखर मोरों के समूह से भी इधर-उधर जहाँ ताण्डव रूप उपहार दिया जा रहा है, ऐसा यह नवीन तमाल सुशोभित हो रहा है । पयनंजय - हे मित्र, ठीक देखा । देखो चंचल किसलय रूपी हाथ के अग्रभाग के द्वारा उठायी हुई फूलों की माला को छोड़कर नवमलिका श्रेष्ठ तमाल का स्वयं वरण कर रही हैं ।।। विदुषक - स्पष्ट रूप से क्यों नहीं कहते हो। तुम्हें निश्चित रूप से कहना चाहिए पवनंजय का स्वयं वरण करती हुई अंजना के समान । पवनंजय - (मुस्कुराहट के साथ) परिहास कर लिया । विदूषक - यह परिहाप्त नहीं है। शीघ्र हो यह अनुभव कर लोगे । नहीं तो क्या राजहंस को छोड़कर हंसी नीच बगुले का अनुसरण करती है । पहले विजयाई पर्वत रूपी हाथी की चूलिका का अनुसरण करने वाले सिद्धकूट सिद्भायतन में मन्दार निलय के भीतर गई हुई अन्य प्रिय सहचरी विद्याधर कन्याओं के माथ फूलों को चुनती हुई तुमने अंजना को देखा था । पवनंजय - और क्या ।। विदूषक - अनन्तर तुम्हें देखकर उसकी कुसुमाञ्जलिभी अफ्नो धीरता के साथ गिर गई थी । जब प्रिय सखियों ने उसका उपहास किया, तब समीप के मन्दार वृक्ष की ओट में छिपी हुई उसे मैंने तुम्हारे प्रति अभिलापा से युक्त देखा था । अतः इस समय अन्यथा आशङ्का मत करो । पावनंजय - (उत्कंठा के साथ) उस समय प्रिया के हस्तपल्लव के अग्रभाग से जो फूल गिरे थे। उन्हों को अमोघ बाण बनाकर कामदेव आज भी मेरे ऊपर प्रहार करता है ||71. (देखकर) हो सकता है सुन्दर हंस के समान गमन करने वाली अंजना मेरे इन दोनों उत्सुक नेत्रों का उत्सव करे ।8।। (नेपथ्य में) मातलिके, मातलिके। विदूषक -. यहाँ पर यह कान बुला यहाँ पर यह कौन बुला रही है। तब तक इस तमाल वृक्ष की ओट में छिपकर एक ओर होकर देखते हैं।
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
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