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महिसा की विजय]
६७] "क्यों ! जो जांचत सनझी बही करने का हो सकता है। प्राप इतने हताश नहीं होओ। आप बाहर आइये, प्रथम प्राचार्य श्री के पास जाइये, गहा की ओर जाओ। क्योंकि उनके दर्शन से आगे क्या करना है यह आपको स्वयं समझ पड़ेगा।"
परन्तु मृगावतो, तुम्हारा जीवन खतरे में डालकर, मैं इस प्रकार निकल गुप्त रोति से भाग जाऊँ यह मुझ से कभी नहीं होने वाला है।"
"कुछ भी होने दो, तुम प्राओ, इस विपत्ति काल में-संकटापन्न दशा में बाहर आकर जितना शक्य हो सके उतना प्रयत्न करना ही चाहिए। चलो, उठो, पहले आगे चलो।"
इस प्रकार कह कर मृगावती ने महेन्द्र का हाथ पकड़ कर उठाया, उत्तने ही में ऊपर के कमरे में से एक जोर की चीख सुनाई पड़ी। यह आवाज हृदय विदारक थी । अपनी कोठरी से ही यह चीत्कार आई है ऐसी मृगावती को शङ्का उत्पन्न हुई । वह शीघ्र ही निकल कर अपने कमरे की ओर दौडी, महेन्द्र भी उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ा ]
मृगावती के कमरे से उस भयानक चौस्त्र को सुन कर राजमहल के ही अनेक लोग दौड पडे । उधर पाये । मृगावती सब से पहले सीढियों पर जाकर पहुँच गई थी। कमरे का दीपक टिमटिमा रहा था। सीढ़ियों पर किसी के आने की आहट पाते ही किसी ने कमरे की खिड़की से कूद कर बाहर छलांग लगाई। उसके शरीर पर काला बुरका था। वह दोडकर जाने ही वाला था कि महेन्द्र युवराज ने दौडकर उसे पकडा उन्होंने उसकी कमर कस कर पकडली ।
डरते-डरते दीपक लिए सब लोग मृगावती के कमरे में एकत्रित हो गये । देखा, कि कमरे का पुरा फर्श रक्त से लथ-पथ था। पलंग पर सोई उसकी सखी के हृदद में किसी ने कटार घुसा कर बध किया है।
राजमहल में और उसमें भी राजकन्या के कमरे में यह खून-हत्या हुयी इससे सवको अत्यन्त ही आश्चर्य हो रहा था। सब चकित हो गये। क्या हुआ ? कैसे हुआ ? क्यों हुआ ? किसी की समझ में नहीं मारहा था।
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