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[अहिंसा की विजय
"उस कमरे को खोलू क्या ?"
"मृगावती ने गर्दम हिला कर सम्मति दो । द्वार खुला एक कमरे का । धीरे से वह अन्दर गई । परन्तु उस समय वह नींद ले रहा था । अतः अति धीमे से वह वापिस आगई और पहरेदार से बोली--
"उस घायल को अभी अभी निदा आई है ऐसा लगता है । सोने दोबेचारे को । परन्तु आज आने वाला तरुण नबीन कैदी कहाँ है ? यह तुम्हें मालूम है क्या ?"
__ "हाँ हो पता है न ! देखो, उस दुसरो ओर की कोठरी में है" इस प्रकार कहते हुए उसने उस रूम का दरवाजा बन्द किया । ताला लगा दिया।
"राजकन्या बहुत ही धामी आवाज में बोली, देखो वे किल्ली (चाबी) इधर दो मुझे। और थोड़ी देर तू यहाँ ही पहरा देता हुआ बैठ ।" उस नवोन कैदी की मुझे कुछ थोडी चौकसी करनी है ।" ।
इस प्रकार कह कर राजकन्या ने चाबियाँ लेली। मृगावती उस कमरे का द्वार खोलने लगी। और पहरेदार आश्चर्य से वहां खडा देखता रहा 1
महेन्द्र जाग्रत सावधान था ताले को आवाज सुनते हो उसने गर्दन उठाकर ऊपर देखा । इतनी रात्रि में कोठरी का द्वार खुलता देख उसे भी एक बार आश्चर्य हुमा । वह चट उठ कर बैठ गया । कमरे में एक लैंप धीमीधीमी जल रही थी। मृगावती को प्राती हुई देख वह महान प्राश्चर्य से बोला "कौन ? मृमावती ?"
"हां, मैं ही हूँ" इतना ही वोलकर वह चुप हो गई । उसका कण्ठ रुद्ध हो गया । क्षणभर कोई भी एक दूसरे से कुछ नहीं बोला।
"लेकिन, तुम इतनी रात्रि में यहां क्यों आई" उस शान्त चुप्पी को भंग करते हुए युवराज महेन्द्र बोला धीरे से ।
"आपको मुक्त करने के लिये ।" मृगावती अश्रु पोछती हुई बोली । आज का समय कितना कार्यकारी स्वतरनाक है यह क्या आप नहीं जानते ? यदि आपने कोई झडपड नहीं की तो प्रात: पशुबलि होने वाली है और साथ ही प्राचार्य श्री का आमरण उपवास प्रारम्भ हो जायेगा।"
__ "हाँ, सत्य है, परन्तु इस समय मुझ से क्या होने योग्य है ? क्या कर सकता हूँ मैं ?'