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अहिंसा की विजय
वती को कितना आनन्द हुअा होगा, यह सोच कर कि मेरा पिता का एक बड़ा भारी संकट टल गया। उसके हर्ष का वर्णन करने में शक्य नहीं। वह कृतज्ञता प्रकट करती हुयी महेन्द्र को प्रोर देखती-खडी रही ।
"समय अधिक हो गया यह देखकर महेन्द्र बोला, "ठीक है इस समय टाइम अधिक हो गया है, मैं जाकर आता हूँ, तो भी इस प्रानन्द रूप प्रसंग की स्मृति में मैं अपनी मुद्रिका आपको देता हूँ।" इस प्रकार कहते हुए उसने हाथ की उंगली से हीरे की मुद्रिका निकाल कर उसे ददी । हास्यमुखी मृमावती ने आनन्द से मुद्रिका स्वीकार कर उस पर अंकित नाम पर दृष्टि डाली, "महेन्द्र" ऐसा अस्पष्ट घीमे स्वर में उच्चारण वारते हुए उसके अधरों के हलन-चलन से उसका भाव समझ कर हँसते हुए पूछा, "परन्तु आपने अपना नाम नहीं बताया ?''
मृगावती ने अपने नाम की मुद्रिकार आगे बढ़ाते हुए कहा ''क्या इसे स्वीकार करियेगा ?' इस समय भी उसका स्वर मन्द और अस्पष्ट था महेन्द्र ने नेत्र स्फालन करते हुए उधर देखा और हाथ बढ़ाया उसने ही में देखते-देखते रविराज अस्ताचल की ओट में जा छिपे। इस समय तक चुप-चाप खड़ी मृगावती की सहेली चट-पट बोल उठी। 'गोधली बेला का यही समय है न ?' उसके बोलते हो दोनों ने एक दूसरे को ओर देखा और मुस्कराये । इशारा में ही एक दूसरे का समाचार प्राप्त कर महेन्द्र अपने रथ पर सवार हो गया । महेन्द्र ने पुन: एक बार पोछ मृडकर देखा। मृगावती अभी तक उसके रथ की ओर दृष्टि गढ़ाये खड़ी थी। जब तक रथ प्रोमल नहीं हुआ वह देखती रही।
रथ बहुत दूर चला गया। अब मृगावती अपनी सखी के साथ राजमहल की ओर बापिस लौटी। उसके आनन्द का पारावार नहीं था । सखी का विनोदपूर्ण बाक्य ने तो और अधिक उसे गुदगुदा दिया था । उस आनन्द के साथ ही अपने पिता का भयंकर संकट दूर करने का उसे गौरव अभिमान भी हो रहा था।
उस दिन प्रतिदिन की अपेक्षा घर जाने में विलम्ब हो गया था । मैंने एक बडा विपत्ति का पहाड चूर किया है।" यह वात पिताजी को कैसे कहना, इसी का वह विचार कर रही थी। परन्तु क्या उसके कार्य से पद्मनाभ को आनन्द होगा ?