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अहिंसा की विजय देव-देव ही नहीं हो सकता यह न व सत्य है । फिर भला धर्म के नाम पर हिमा कसो ? जो लोग मांस लोलुपी, स्वयं अपनी लोलुपता शान्त करना चाहते हैं वे ही पापी धर्म के नाम पर बलि का बहाना कर लोगों को अपने चंगुल में फंसाते हैं ऐसे ही लोग पशुबलि का प्रचार-प्रसार कर बेचारे भोले प्राणियों को नरक द्वार में गिराने का प्रयत्न करते है । नाना प्रकार कपट नाटक कर-कर भोल लोगों की दिशाभूल करते हैं।
___ संसार में सभी जीव सुखी नहीं हैं । जिनका जैसा जैसा कर्म होता है उसी उसी प्रकार का सुख प्राप्त होता है, दुःख भी वैसा ही मिलता है। कर्मानुसार संसार की लीला है। इसलिम तो सर्वत्र विषमता सण्टिगत होती है। किसी को सन्तान नहीं है । तो किसी को सम्पत्ति नहीं, कोई रोगी पीड़ित है, तो किसी को वियोग जन्य बेदना की टीस सी है. कोई दरिद्री है तो कोई शत्रुभय से भयभोत है, इस प्रकार एक दो नहीं हजारों प्रकार से प्रत्येक मानव दूःस्त्री है-प्रत्येक प्राणी पीडित है। एभिप्राय यह है कि इन दुःखों का कारण जीव का पूर्वेपाजित कर्म ही है । स्वतः का पाप कर्म ही दुःख का कारण होता है । आप विचार करिये, ऐसे पापकर्म का नाश क्या देवी देवता को बलि देकर प्रसन्न करने से हो सकता है ? कभी होने वाला नहीं । फिर भला हमारे दु:स्त्र' की निति भी कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती। इसके विपरीत दुःख का मूल कारण पापकर्म ही सचित होगा । क्या कीचड़ से कीचड धुल सकती है ? रक्त से रक्त स सना बस्त्र शुद्ध हो सकता है ? उसी प्रकार प्राणो पीड़ा-हत्या, बलि देने से दुःख का कारणीभूत पाप नष्ट हो सकता है ? "नहीं नहीं कभी नहीं" चारों ओर से आवाज आती है । आचार्य महाराज पुनः बोलते हैं भया, इसके विपरीत उलटा पाप ही बडेगा। इसमें शंका नहीं । बन्धजन हो, इस प्रकार के पाप का प्राज मल्लिपुर शिरमौर बन रहा है । यहां पर उपस्थित लोगों में से भी बहुत से लोगों ने देवी को बलि चढाकर उसे प्रसन्न करने का उपाय किया होगा, उसकी कृपा का पात्र बनने का उपाय अवश्य किया होगा, सुखी बनने की आशा को होमी । परन्तु ऐसा करने में प्रापको गलती क्या है ? "यथा राजा तथा प्रजा" तुम्हारे राजा के द्वारा ही यह कुमार्ग प्रारम्भ किया गया है, तो आपका उसके पीछे पीछे चलना कोई आश्चर्य की बात नहीं।
सम्पूर्ण प्राणियों का पालन-पोषण करना वह राजधर्म है। परन्तु मल्लिपुर का पद्मनाभ राजा अपना कुल धर्म छोड़कर विधर्मी हो गया।