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[अहिंसा की विजय
उनके साथ छल-कपट कर, किंवा अन्याय से मरे का धनादि अपहरण कर सूख मिलने की प्रागा करने बालों का समाधान कभी नहीं होता । अर्थात् उन्हें सुख तिलमात्र भी प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरों को सुखो बनाकर स्वयं सुखी होने की आशा करने की साधना, अपने पूर्वजों द्वारा उभय लोक के कल्याणप्रद साधन तत्व कहे गये हैं उनपर चलना ही धर्म कहा जाता है। उसकी ही धर्म संज्ञा दी जा सकती है । परन्तु इस समय इस प्रकार के अनेक धर्म और पन्ध बालू हो गये हैं की कौनसा मार्ग स्वीकार करने से अपना कल्याण होगा ? इसका प्रत्येक मानव को विचार करना चाहिए । क्योंकि 'बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय ।" संसार विचित्र है और मायाजाल से भरा है. सच्चा सुस्त्र का मार्ग स्त्रोजना दुर्लभ है -
कुछ लोगों की धारणा है कि यज्ञ करने से, अथवा देवी-देवताओं को नरबली, पशुबली देने से सुख की प्राप्ति होगी। परन्तु थोडा सा भी यदि शान्त मन से विचार किया तो निश्चय ही यह सन्मार्ग नहीं दुर्गि है यह अापको स्पष्ट विदित हो जायेगा । क्योंकि हमें जिस प्रकार सुत्रेच्छा है, उसी प्रकार पशु-पक्षो आदि प्राणियों को भी सुख की अभिलाषा है यही नहीं, आपतु सूक्ष्मतम कोई, मकोड, पतङ्गादि को भा सुखपूर्वक जीवित रहने को आकांक्षा बनो हृयो है । इस प्रकार भाव रखने वाले असमर्थ, निरपराध प्रागियों का घात कर उनकी बलि चढाने से अपना भला होगा क्या ? अपने को शुख मिल सकता है क्या ? कभी नहीं । जो कहते हैं इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है । वे विचार करें, जब ईश्वर ही जग निर्माता है तो संसार के प्राणी मात्र सर्व उसी की सन्तान हयो । उसी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए. उसी की सन्तान का घात कर . वनी देना' अर्थात् उसकी उत्पन्न की हुबी सन्तान को उसी के नाम पर बच करना, बली चढाना कितना विपरीत है वह कार्य, जरा अापलॉग विचार करें। यह सही यही है क्या ? अपने अंग पर सूई या कांटा का चभना भी हमें सह्य नहीं और उन देचारे मक पत्रों का छरी से घात करना किस प्रकार सह्य हो सकता है ? फिर, यदि कोई ईश्वर है तो वह अपनी सम्पुर्ण सन्तानों पर समान प्रेम दिखावेगा। "मनुष्यों द्वारा पशुओं का बध कर मुझे बली चढ़े" ऐसा तो वह कभी भी मानने वाला नहीं हो सकेमा । क्योंकि वह सम्पूर्ण प्रारणो मात्र का जन्मदाता है। प्रत्येक धर्म का मूल तत्व भी दया ही है । परन्तु इस मर्वश्रेष्ठ दयाधर्म का त्याग कर अज्ञानत्रश, क्षणिक मुख के आभास मात्र के हिंसामार्ग का अबलम्बन करने वाले अन्त में दुःखी हुए बिना रह नहीं सकते। जीव वलो मांगने वाला