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अहिंसा को विजय]
[१७ उन दोनों को उस समय समझ में आ गया : पर गह, काग जाजार यह उन्हें बिल्कुल भी समझ में नहीं आया।
मृगावती की यह प्रथम दृष्टि ही उस पर क्षणभर को पड़ी थी। राजपुत्र के साथ यह पहला इष्टिपात था। उसका पूर्व परिचय तो दर. कभी दर्शन ही नहीं हुआ था, तो भी उस एक क्षणमात्र की दृष्टि क्षेप से उसे एक अननुभूत हृदयानन्द उत्पन्न हुमा । उसके सम्पूर्ण शरीर में यह आनन्द संचार अपूर्व था। वह राजपुत्र कौन हो सकता है ? यह जानने की उत्कट उत्कण्ठा उसके हृदय में जाग्रत हो गई थी। परन्तु उसे समझने का मार्ग ही क्या था ! कोई उपाय न था । वह देवी के दर्शन को मन्दिर में गई, परन्त प्रतिदिन के समान उसका लक्ष देवी की ओर नहीं गया । मन कहीं और ही ठिकाने था । और रोज के समान वहाँ से बापिस आते समय भी सायंकालीन आकाश लालिमा को और दृष्टि नहीं डाली, तथा समूह में लौटते हए पक्षियों की पंक्तियों को भी आनन्द से नहीं देखा, पशुओं की ओर भी दृष्टि नहीं डाली, खोई-खोई सी चली जा रही थी। यही नहीं राजवाडे में पहुँचकर भो खान-पान की सुध-बुध भो भुल गई । क्या गजब है एक क्षण की चार आँखों की भिडन ने काया पलट बार दी, क्या जादू है यह ? क्या ही विचित्र मिलन है यह ? इस राग के कारण ही मनुष्यों के हृदय की भावना एक क्षण में ही उलट-पुलट हो जाती है । मात्र एक ही कटाक्ष से कितनों का हृदय जीत लिया जाता है। इसके विपरीत नजर से एक ही इशारे की ईर्ष्या से हजारों का मरण भी हो जाता है । न केवल मनुष्यों पर ही यह दृष्टी का असर होता है अपितु पशु-पक्षियों पर भी दृष्टि का जादू विलक्षण ही प्रभाव पड़ता है । फिर महेन्द्र की नजर-दृष्टिपात से मृगावती पगली सी हो गई तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? यह कोई नवीन काम है क्या ?
मगावती की अवस्था तो विचित्र हुयी। ठीक है। पर महेन्द्र ! उसका हाल क्या हुआ? यह कहने को अावश्यकता ही क्या है ? क्या उस पर कोई प्रभाव नहीं पडा क्या ? इस एक क्षण की नजर भिडन का परिणाम क्या हुआ ? कुछ नहीं हुआ क्या ?
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