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[ अहिंसा की विजय
पद्मनाभ महाराज ने जिस समय देवी का मन्दिर निर्माण कराया था और पशुबली की प्रथा चालू की थी उसी समय बहुत से अहिंसा धर्मादलम्बियों को यह कृत्य अनुचित लगा था | इतना हो नहीं राजघराने के वृद्धजन भी इसकृत्य के विरुद्ध थे । परन्तु महाराज की सत्ता के समक्ष किस की चल सकती थी ? सबकी चतुराई, बुद्धिमानी धरी रह गई । राजा के सब जैन नग्न किसी भी पूर्वज ने हिसाधर्म का अवलम्बन नहीं किया था । मुनी को हो अपना गुरु मानते थे । दिगम्बर साधुम्रों के प्रति उनकी अकाट्य दृढ श्रद्धा थी । उस समय पद्मनाभ राजा को भी इस हिंसा मार्ग से रोकने को एक नग्न मुनिराज ने बहुत प्रयत्न किया था परन्तु उनकी शिक्षा का कोई असर राजा पर नहीं हुआ था। देवी एक "साक्षात् जागृत शक्ति है और उसी की कृपा से मेरी कन्या जीवन्त रह सकी हैं" ऐसा उसे पूर्ण विश्वास जम गया था । इतना ही नहीं अपितु देदी यदि रुष्ट हो गई तो मेरा सर्वनाश हो जायेगा यह भी उसके मन में था वही कर किसी भी साधु-सन्त का प्रभाव नहीं पड़ा । किसी का सदुपदेश उसे उस पापकार्य से परावृत नहीं कर सका। इसके विपरीत हुआ यह कि जिसने देवी को बलिदान करने का निषेध किया उनके घरों में श्राग लग गई. उनका घन-माल लुट गया, नाना उपद्रव हो गये । इस कारण लोगों के मन में एक fafar दहशत वैठ गयी। फलतः धीरे-धीरे राजा के समान प्रजा भी कालीदेवी की भक्त बनने लगी । सबै मोर हिंसा का ताण्डव दृष्टिगत होने लगा ।
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"जहाँ हिंसात्मक क्रियाकाण्ड हों, लोग हिंसक हों वहाँ, साधुनों को नहीं रहना चाहिए ।" इस प्रकार विचार कर सभी नग्न दिगम्बर दयालु मुनिराज उस नगरी से निकल विहार कर चले गये । उसके बाद श्राजतक चौदह वर्षो में कोई भी साधु वहाँ नहीं पधारे। किसी भी मुनि के चरण नहीं पड़े। कोई भी सन्त राजधानी की ओर नहीं आये | कालीमाता के उत्कर्ष हृदय से अहिंसाको यह बहुत अच्छा हुआ। परिणाम यह हुआ कि लोगों के धर्म लुप्त प्रायः होने लगा और देवी की पशुबली ही हमारा कर्त्तव्य है ऐसा भाव जमने लगा । बली चढाना ही हमारा कर्तव्य है ऐसा उन्हें भास होने लगा । इस प्रकार हिंसा प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो गई कि प्रतिवर्ष हजारों मुक, निरपराध पशु- देवी की भेंट चढ़ने लगे । रक्तधारा बहने लगी । यह सब देखकर महावीर प्रभु के सच्चे अनुयायियों को बहुत ही दुःख होता, पीडा हुयी परन्तु राजा की दृष्टि विपरीत हो जाने से किसी का कुछ भी चल नहीं सकता था । इस कारण प्रतिकार का किसी ने विशेष कोई प्रयत्न भी नहीं