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आचार्य श्री का चातुर्मास -२
राजा पद्मनाभ शैया पर करवट बदल रहे हैं । निद्रा देवी मनानें पर भी नहीं आई । उनके मस्तिष्क में अनेकों तर्क-वितर्कों की लहरें दौड़ने लगीं याखिर देवी की ओर से इस प्रकार के सन्देश आने का क्या कारण है ? इसी सम्बन्ध में विचार करते-करते रात्रि पूर्ण हो गई। देवी की सेवा में मैंने कोई भूल नहीं की, मैं बराबर सावधान रहा हूं ? इतना करने पर भी देवी प्रसन्न नहीं ? इसका क्या कारण है ? क्यों ऐसा सन्देश दिया ? इस प्रकार अनेकों प्रकार से विचार करने पर भी राजा को कारण स्पष्ट नहीं हुआ ।
देवी की कृपा के लिए राजा ने सब कुछ किया था । कुल मर्यादा छोड़ी अपनी सत्यार्थ परम्परा छोड़ पशुबली देना प्रारम्भ किया । श्री मल्लिनाथ जिनालय की सेवा-पूजा संरक्षण को पूर्वजों ने जो दान दिया था उसे बन्द कर देवी की सेवा-पूजा में लगाना स्वीकार किया था। इतना ही नहीं पन्द्रह वर्षों से भूलकर भी मन्दार पर्वत पर श्री जिनेन्द्र प्रभु के दर्शनों को भी नहीं गया था। जिनमन्दिर को अपेक्षा भी अधिक खेती-बाडो, सोनाचाँदी देवो के मन्दिर को दिया था। ठाट-बाट से देवी पूजा कराता था । माणिक देव तो उसका राजगुरु ही बन गया था । इतना सब कुछ होने पर भो देवी रुष्ट हो गई इस विषय में उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था ।
सवेरा हुआ । महाराज देवी पूजा की समस्त सामग्री एवं बली लेकर देवी के दर्शनों को आये । पूजा-पाठ करते-करते सन्ध्याकाल हुआ | लगभग सन्ध्या समय छह बजते ही देवी की पूजा-प्रारती होकर पशु बली दी जायेगी पुनः आरती होगी । इस प्रकार पुरोहित ने आज्ञा दी । उसकी आज्ञानुसार आरती को एकत्रित हुए सब लोग बाहर निकल गये ।
मन्दिर पूर्ण शान्त दिखने लगा । अन्धकार होने लगा | मात्र मन्दिर के पड़ोस में स्थित मठ में पिरोहित के शिष्य और सेवकों का कुछ मन्द मन्द शब्द सुनाई देता था । सर्वत्र नीरवता छा गयी। शान्तता देख पुरोहित ने आवाज लगाई "नरसिंह" ।