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________________ ५२३ द्वाविंशं पर्व कचिद्विरलमुन्मुक्तकुसुमास्ते महीरूहाः। पुष्पोपहारमातेनुरिव मस्या जगद्गुरोः॥१६॥ कचिद्विरुवतां ध्वानरलिना मदमजुमिः । मदनं तर्जयन्तीव वनान्यासन् समन्ततः ॥१६॥ पुस्कोकिलकलवाणैराहयन्तीव सेवितुम् । जिनेन्द्रममराधीशान् बनानि विवभुस्तराम् ॥१०॥ पुष्परेणुभिराकीर्णा वनस्याधस्तले मही । सुवर्णरजसास्तीगतलेवासीम्मनोहरा ॥१७॥ इस्यमूनि वनान्यासतिरम्याणि पादपैः । यत्र पुष्पमयी वृष्टिर्न पर्यायमक्षत ॥७२॥ न रात्रिन दिवा तत्र तरुभिर्मास्वरैर्मृशम् । तरुशोत्यादिवाविभ्यत्संजहार करान् रविः ॥१७॥ अन्तर्वणं कचिद्वाप्यस्त्रिकोणचतुरनिकाः । स्नातोत्तीर्णामरस्त्रीणां स्तनकुडकुमपिजराः ॥१७॥ पुष्करिण्यः कचिचासन् कचिच कृतकादयः । कचिदम्याणि हाणि कचिदाक्रीडमण्डपाः ॥१७५॥ कचिस्प्रेक्षागृहाण्यासन् "चित्रशालाः कवचित्क्वचित् । एकशाला विशालाचा महाप्रासादपक्तयः॥१७॥ कचिच्च मादलो' भूमिरिन्द्रगोपैस्तता कचित् । सरांस्यतिमनोज्ञानि सरिखश्च ससैकताः ॥१७॥ भित हो रहे थे मानो जिनेन्द्रदेवका गुणगान ही कर रहे हों ॥१६॥ कहीं-कहीं विरलरूपसे वे वृक्ष ऊपरसे फूल छोड़ रहे थे जिनसे ऐसे मालूम होते थे मानो जगद्गुरु भगवान के लिए भक्तिपूर्वक फूलोंकी भेंट ही कर रहे हों ॥१६८।। कहीं-कहींपर मधुर शब्द करते हुए भ्रमरोंके मद-मनोहर शब्दोंसे ये वन ऐसे जान पड़ते थे मानो चारों ओरसे कामदेवको तर्जना ही कर रहे हों ॥१६९।। उन वनोंमें कोयलोंके जो मधुर शब्द हो रहे थे उनसे वे वन ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्र भगवानकी सेवा करनेके लिए इन्द्रोंको ही बुला रहे हो ॥१७०।। उन वनोंमें वृक्षोंके नीचेकी पृथ्वी फूलोंके परागसे ढकी हुई थी जिससे वह ऐसी मनोहर जान पड़ती थी मानो उसका तलमाग सुवर्णकी धूलिसे ही ढक रहा हो ॥१७१।। इस प्रकार वे वन वृक्षोंसे बहुत ही रमणीय जान पड़ते थे, वहाँपर होनेवाली फूलोंकी वर्षा ऋतुओंके परिवर्तनको कभी नहीं देखती थी अर्थात् वहाँसदा ही सब ऋतुओंके फूल फूले रहते थे॥१७॥ उन वनोंके वृक्ष इतने अधिक प्रकाशमान थे कि उनसे वहाँ न तो रातका ही व्यवहार होता था और न दिनका हो । वहाँ सूर्यकी किरणोंका प्रवेश नहीं हो पाता था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वहाँके वृक्षोंकी शीतलतासे डरकर ही सूर्यने अपने कर अर्थात् किरणों (पझमें हाथों) का संकोच कर लिया हो ॥१७३। उन वनोंके भीतर कहींपर तिखूटी और कहींपर चौखूटी बावड़ियाँ थीं तथा वे बावड़ियाँ स्नान कर बाहर निकली हुई देवांगनाओंके स्तनोंपर लगी हुई केसरके घुल जानेसे पोली-पीली हो रही थीं ॥१७४। उन वनों में कहीं कमलोंसे युक्त छोटे-छोटे तालाब थे, कहीं कृत्रिम पर्वत बने हुए थे और कहीं मनोहर महल बने हुए थे और कहीं पर क्रीड़ा-मण्डप बने हुए थे।७५|| कहीं सुन्दर वस्तुओंके देखनेके घर (अजायब. घर) बने हुए थे, कहीं चित्रशालाएँ बनी हुई थीं, और कहीं एक खण्डकी तथा कहीं दो तीन आदि खण्डोंकी बड़े-बड़े महलोंकी पंक्तियाँ बनी हुई थीं ॥१७॥ कहीं हरी-हरी घाससे युक्त भूमि थी, कहीं इन्द्रगोप नामके कीड़ोंसे व्याप्त पृथ्वी थी, कहीं अतिशय मनोज्ञ तालाब थे और कहीं उत्तम बालू के किनारोंसे सुशोभित नदियाँ बह रही थीं ॥१७॥ १. बनताम् । २. मनोहरैः । ३. आच्छादित । ४. ऋतूनां परिक्रमवृत्तिम् । ५. वने । ६. बा समन्ताव त्रस्यन् । भयपूर्विकां निवृत्ति कुर्वन् वा । ७. वनमन्ये । ८. स्नात्वा निर्गत । स्नानोत्तीर्णा ल., ०.। ९. दोधिका । १०. चित्रोपलक्षित-1 ११. हरिताः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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