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## The Twenty-Second Chapter **516** Where the blossoming creepers were touched by the honey-bees, even the menstruating women were considered pure, where are the purity of the honey-drinkers? (126) **517** In the midst of that forest, there were moonstone slabs, cool to the touch of snow, for the rest of the Indra. (127) **518** Then, within that forest, there was a golden fort, the first of its kind, that encircled the entire Samavasarana land. (128) **519** That fort, situated around the Samavasarana land, was adorned as if the Manushottara mountain, situated around the human world, was there. (129) **520** It seemed as if hundreds of rainbows, wanting to adorn the celestial courtyard, had come in the guise of a fort and adorned the Samavasarana land. (130) **521** On the upper part of that fort, there were clusters of pearls, embedded, which made people wonder if they were a cluster of stars. (131) **522** In that fort, there were clusters of mungas, which were made even more red by the rays of the Panaragamanis, and were capable of revealing the beauty of the evening clouds. (132) **523** That fort was sometimes black like a new ram, sometimes green like grass, sometimes like the Indragopa, sometimes yellow like lightning, and sometimes it produced the beauty of a rainbow with the rays of various jewels. Thus, it was mocking the beauty of the rainy season. (133-134)
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________________ द्वाविंश पर्व ५१६ वल्लीः कुसुमिता यत्र स्पृशन्ति स्म मधुमताः । रजस्वला अपि प्रायः क्व शौचं मधु पायिनाम् ॥१२६ तामवनमध्यस्था हिमानोस्पर्शशीतलाः । चन्द्रकान्तशिला यत्र विश्रमायामरेशिनाम् ॥१२७॥ ततोऽभ्वानमतीस्वान्तः यिन्तमपि तो महीम् । प्रकारः प्रथमो वो निषधामो हिरण्मयः ॥१२॥ रुरुचेऽसौ महान् सालः क्षिति वा परितः स्थितः । यथाऽसौ चक्रालादिनुलोकाध्युषितां भुवम्॥१२९॥ नूनं सालनिभेनस्य सुरचापपर शतम् । वामलंकुरुते स्म मा पिजरीकृतखाङ्गणम् ॥१३०॥ यस्योपरितले लग्ना सुम्यक्ता मौक्तिकावली । ताराततिरियं किंस्विदित्याशङ्कास्पदं नृणाम् ॥१३॥ स्वचिद्विगुम संघातः पनरागांधुरक्षितः । यस्मिन् सांध्यधनच्छायमाविष्कर्तुमलंतराम् ॥१३२॥ क्वचित्रवनच्छायः"क्वचिच्छावकसविः । स्वपिच सुल्गोपामो 'वियुदापिजरः क्वचित्॥१३३॥ क्वचिद्विचित्ररत्नापुरचितेन्द्रनारासनः । धनकालस्य वैदग्धी स सालोऽलं व्यरम्बयत् ॥१३॥ बहुत ही सन्तोष पहुँचाती थी ॥१२५।। उस वनमें अनेक कुसुमित अर्थात् फूली हुई और रजस्वला अथोत् परागसे भरी हुई लताकिा मधुव्रत अथोत् भ्रमर स्पर्श कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि मधुपायी अर्थात् मद्य पीनेवालोंके पवित्रता कहाँ हो सकती है। भावार्थ-जिस प्रकार मधु ( मदिरा.) पान करनेवाले पुरुषोंके पवित्र और अपवित्रका कुछ भी विचार नहीं रहता, वे रजोधर्मसे युक्त ऋतुमती स्त्रीका भी स्पर्श करने लगते हैं, इसी प्रकार मधु (पुष्परस)का पान करनेवाले उन भ्रमरोंके भी पवित्र-अपवित्रका कुछ भी विचार नहीं था, क्योंकि वे ऊपर कही हुई कुसुमित और रजस्वला लताल्पी स्त्रियोंका स्पर्श कर रहे थे। यथार्थमें कुसमित और रजस्वला लताएँ अपवित्र नहीं होती। यहाँ कविने श्लेष और समासोक्ति अलंकारको प्रधानतासे ही ऐसा वर्णन किया है।।१२६।। उस बनके लतागृहोंके बीच में पड़ी हुई बर्फके समान शीतल स्पर्शवाली चन्द्रकान्तमणिकी शिलाएँ इन्द्रोंके विश्रामके लिए हुआ करती थीं ॥१२७॥ उस लतावनके भीतरकी ओर कुछ मार्ग उल्लंघन कर निषध पर्वतके आकारका सुवर्णमय पहला कोट था जो कि उस समवसरण भूमिको चारों ओरसे घेरे हुए था ।१२। उस समवसरणभूमिके चारों ओर स्थित रहनेवाला वह कोट ऐसा सशोभित हो रहा था मानो मनुष्यलोककी भूमिके चारों ओर स्थित हुआ मानुषोत्तर पर्वत ही हो ॥१२९|| स कोटको देखकर ऐसा मालूम होता था मानो आकाशल्पी आँगनको चित्र-विचित्र करनेवाछा सैकड़ों इन्द्रधनुषोंका समूह ही कोटके बहानेसे आकर उस समवसरणभूमिको अलंकृत कर रहा हो ॥१३०॥ स कोटके ऊपरी भागपर सष्ट दिखाई देते हुए जो मोतियों के समूह जड़े हुए थे वे क्या यह ताराणोंका समूह है, इस प्रकार लोगोंकी शंकाके स्थान हो रहे थे ॥१३१।। उस कोटमें कहीं-कही-को-मुंगानोंके समूह लगे हुए थे वे पनरागमणियोंकी किरणोंसे और भी अधिक लाल हो गये थे और सन्ध्याकालके वादलोंकी शोभा प्रकट करनेके लिए समर्थ हो रहे थे ॥१३सा वह कोट कही तो नवीन मेषके समान काला था, कहीं घासके समान हरा था, कहीं इन्द्रगोपके समान डाल-डाल था, कहीं बिजलीके समान पीला-पीला था और कहीं अनेक प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे इन्द्रधनुषकी शोभा उत्पन्न कर रहा था। इस प्रकार वह वषोंकालकी शोभाकी विडम्बना कर रहा था॥१३३-१३४॥ वह कोट कहीं तो १. परागवती । ध्वनी ऋतुमती। २. मधुपानाम् । ध्वनी मद्यपायिनाम् । ३. हिमसंहतिः । ४. विश्रामाया १०, म०, ल० । ५. वल्लीवनभूमिम् । ६. मानुषोत्तरपर्वतः । ७.व्याजेन । ८. बहुशतम् । ९. प्रावरमेघ । १०. हरित । ११. इन्द्रगोपकान्तिः । इन्द्रगोप इति प्रावटकालभवत्रसविशेषः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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