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________________ द्वाविंश पर्व ५१३ स्मरवक्याम्बुजा रंजुनयनोत्पलराजिताः । सरस्य इव लावण्यरसापूर्णाः सुराङ्गनाः ॥७॥ तासां स्मराणि वक्त्राणि पदमबुद्ध्यानुभावताम् । रंजे मधुलिहां माला धनुज्यंव मनोभुवः ॥६॥ हाराश्रितस्तनोपान्ता रेजुरप्सरसस्तदा । दधाना इव निर्मोकसमच्छायं स्तनांशुकम् ॥६६॥ सुरानकमहाध्वानः पूजावेलां परां दधत् । प्रचरहेबकल्लोलो नमी देवागमाम्बुधिः ॥७॥ ज्योतिर्मय इचैतस्मिन् जाते सृष्टयन्तरे भृशम् । ज्योतिर्गणा हिवासन् विच्छायत्वाइलक्षिताः ॥७॥ तदा दिव्याङ्गनारूपैर्हयहस्यादिवाहनैः । उच्चावचैनभोवम भेजे चित्रपटश्रियम् ॥७२॥ 'देवाङ्गद्युतिविद्युद्भिस्तदाभरणरोहितैः । सुरेमनीकजोमूतैयोमाशात् प्रावृषः श्रियम् ॥७३॥ इत्यापतत्सु देवेषु समं यानविमानकैः । सजानिपु तदा स्वर्गश्चिरादुवासितो बत ॥७॥ समारुद्ध्य नभोऽशेषमित्यायातैः सुरासुरः । जगत्प्रादुर्भवहिण्यस्वर्गान्तरमिवारुचत् ॥७॥ सुरेढूंरादथालोकि विभोरास्थानमणलम् । सुरशिल्पिभिरारम्धपरायरचनाशतम् ॥७६॥ आकाशमें ठीक कल्पलताओंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥६६।। उन देवाङ्गनाओंके कुछ-कुछ हँसते हुए मुख कमलोंके समान थे, नेत्र नील कमलके समान सुशोभित थे और स्वयं लावण्यरूपी जलसे भरी हुई थीं इसलिए वे ठीक सरोवरोंके समान शोभायमान हो रही थीं ॥६॥ कमल समझकर उन देवांगनाओंके मुखोंकी ओर दौड़ती हुई भ्रमरोंकी माला कामदेवके धनुषकी डोरीके समान सुशोभित हो रही थी ।।६८। जिनके स्तनोंके समीप भागमें हार पड़े हुए हैं ऐसी वे देवांगनाएँ उस समय ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो साँपकी काँचलीके समान कान्तिवाली चोली ही धारण कर रही हो ॥६९।। उस समय वह देवोंका आगमन एक समुद्र के समान जान पड़ता था क्योंकि समुद्र जिस प्रकार अपनी गरजनासे वेला अर्थात् ज्वार-भाटाको धारण करता है उसी प्रकार वह देवोंका आगमन भी देवोंके नगाड़ोंके बड़े भारी शब्दोंसे पूजा-वेला अर्थात् भगवानकी पूजाके समयको धारण कर रहा था, और समुद्र में जिस प्रकार लहरें उठा करती हैं उसी प्रकार उस देवोंके आगमनमें इधर-उधर चलते हुए देवरूपी लहरें उठ रही थीं ।।७०।। जिस समय वह प्रकाशमान देवोंकी सेना नीचेकी ओर आ रही थी उस समय ऐसा जान पडता था मानो ज्योतिषी देवोंकी एक दसरी ही सष्टि उत्पन्न हुई हो और इसलिए ही ज्योतिषी देवोंके समूह लज्जासे कान्तिरहित होकर अदृश्य हो गये हों।।७१।। उस समय देवांगनाओंके रूपों और ऊँचे-नीचे हाथी, घोड़े आदिकी सवारियोंसे बह आकाश एक चित्रपटकी शोभा धारण कर रहा था ॥७२॥ अथवा उस समय यह आकाश देवोंके शरीरकी कान्तिरूपी बिजली, देवोंके आभूषणरूपी इन्द्रधनुष और देवोंके हाथीरूपी काले वादलोंसे वर्षाऋतुकी शोभा धारण कर रहा था ॥७३। इस प्रकार जब सब देव अपनीअपनी देवियोंसहित सवारियों और विमानोंके साथ-साथ आ रहे थे तब खेदकी बात थी कि प्रवर्मलोक बहुत देर तक शून्य हो गया था ।।७४।। इस प्रकार उस समय समस्त आकाशको घेरकर आये हुए सुर और असुरोंसे यह जगत् ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उत्पन्न होता हुआ कोई दूसरा दिव्य स्वर्ग ही हो ।।७।। अथानन्तर जिसमें देवरूपी कारीगरोंने सैकड़ों प्रकारकी उत्तम-उत्तम रचनाएँ की हैं. ... १. -ध्यानैः अ०, स०, ल०,३०, द०, प० । २. कालम् । ३. नानाप्रकारः । ४. सुरकायकान्ति । ५. ऋजुसुरचापैः । 'इद्रायुधं शक्रधनुस्तदेव ऋजुरोहितम्' इत्यभिधानात् । ६. मागच्छत्सु । ७. स्त्रीसहितेषु । ८. शून्यीकृतः । ९. -सितोऽभवत अ०, ५०, ल०, १०६०।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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