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________________ ५१२ आदिपुराणम् तासां सहास्यशृङ्गाररसभावलयान्वितम् । पश्यन्तः कैशिकीप्रायं नृत्तं पिप्रियिरे सुराः ॥१७॥ प्रयाणे सुरराजस्य नेटुरप्सरसः पुरः । रक्तकण्ठाश्च किन्नों जगुर्जिनपतेर्जयम् ॥५॥ ततो द्वात्रिंश दिन्द्राणां पूतना बहुकेतनाः । प्रसस्नुर्विलसच्छत्रचामराः प्रततामराः ॥५९॥ अप्सरःकुङ्कुमारक्तकुचचक्रायुग्मकं । तद्वक्त्रपङ्कजच्छो लसत्तन्मयनोत्पले ॥६॥ नभःसरसि हारांशुच्छमवारिणि हारिणि । चलन्तश्चामरापीडा हंसायन्ते स्म नाकिनाम् ॥६५॥ . इन्द्रनीलमयाहार्य रुचिभिः क्वचिदाततम् । स्वामामां बिभराभास धौतासिनिममम्बरम् ॥६२॥ पद्मरागरुचा व्याप्तं क्वचिद्वयोमतलं बमो" । सान्ध्यं रागमिवाबिभ्रद रञ्जितदिङ्मुखम् ॥६३॥ क्वचिन्मरकतच्छायासमाक्रान्तममान्नमः । स शैवलमिवाम्भोधेर्जलं पर्यन्तसंश्रितम् ॥६४॥ देवाभरणमुक्तौघशबलं सहविद्रुमम्' । भेजे पयोमुचां वर्म विनीलं जलधेः श्रियम् ॥६५॥ तन्व्यः सुरुचिराकारा लसदंशुकभूषणाः । तदामरस्त्रियो रेजुः कल्पवल्य इवाम्बरे ॥६६॥ सहित नृत्य कर रही थीं ॥५४-५६॥ जो हास्य और शृंगाररससे भरा हुआ था, जो भाव और लयसे सहित था तथा जिसमें कैशिकी नामक वृत्तिका ही अधिकतर प्रयोग हो रहा था ऐसे अप्सराओंके उस नृत्यको देखते हुए देवलोग बड़े ही प्रसन्न हो रहे थे ॥५७॥ उस प्रयाणके समय इन्द्र के आगे अनेक अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और जिनके कण्ठ अनेक राग रागिनियोंसे भरे हुए हैं ऐसी किन्नरी देवियाँ जिनेन्द्रदेवके विजयगीत गा रही थीं ॥५८।। तदनन्तर जिनमें अनेक पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनमें छत्र और चमर सुशोभित हो रहे थे, और जिनमें चारों ओर देव ही देव फैले हुए थे ऐसी बत्तीस इन्द्रोंकी सेनाएँ फैल गयीं ।।५९॥ है जिसमें अप्सराओंके केसरसे रँगे हुए स्तनरूपी चक्रवाक पक्षियोंके जोड़े निवास कर रहे हैं, जो अप्सराओंके मुखरूपी कमलोसे ढका हुआ है, जिसमें अप्सराओंके नेत्ररूपी नीले कमल सुशोभित हो रहे है और जिसमें उन्हीं अप्सराओंके हारोंकी किरणरूप ही स्वच्छ जल भरा हुआ है ऐसे आकाशरूपी सुन्दर सरोवरमें देवोंके ऊपर जो चमरोंके समूह ढोले जा रहे थे वे ठीक हंसोंके समान जान पड़ते थे॥६०-६१।। स्वच्छ तलवारके समान सुशोभित आकाश कहीं-कहींपर इन्द्रनीलमणिके बने हुए आभूषणोंको कान्तिसे व्याप्त होकर अपनी निराली ही कान्ति धारण कर रहा था ॥६२।। वही आकाश कहींपर पद्मराग मणियोंकी कान्तिसे व्याप्त हो रहा था जिससे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो समस्त दिशाओंको अनुरंजित करनेवाली सन्ध्याकालकी लालिमा ही धारण कर रहा हो ॥६३।। कहींपर मरकतमणिकी छायासे व्याप्त हुआ आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो शैवालसे सहित और किनारेपर स्थित समुद्रका जल ही हो ॥६४।। देवोंके आभूपणों में लगे मोतियों के समूहसे चित्र-विचित्र तथा मूंगाओंसे व्याप्त हुआ वह नीला आकाश समुद्रकी शोभाको धारण कर रहा था ॥६५।। जो शरीरसे पतली हैं, जिनका आकार सुन्दर है और जिनके वस्त्र तथा आभूपण अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी देवांगनाएँ उस समय १. हास्यसहित । २. लज्जासहितशृङ्गारविशेषादिकम् । ३. गायन्ति स्म । ४. कल्पेन्द्रा द्वादश. भवनेन्द्रा दश, व्यन्तरेन्द्रा अष्ट, ज्योतिष्केन्द्रौ द्वाविति द्वात्रिंशदिन्द्राणाम् । ५. प्रतस्थिरे । ६. विस्तृतसूराः । ७. समूहाः । ७. आभरणकान्तिभिः । ९. निजकान्तिम् । १०. उत्तेजितखड्गसङ्काशम् । ११. अभात् । १२. मौक्तिकनिकरण नानावर्णम् । १३. प्रवालसहितम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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