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________________ ४८६ आदिपुराणम् अहं' ममानवो बन्धः संवरो निर्जरा भयः । कर्मणामिति तस्वार्था ध्येयाः सप्त नवाथवा ॥१०॥ षट्तयद्रव्यपर्याययाथात्म्यस्यानुचिन्तनम् । यतो ध्यानं ततो ध्येयः कृत्स्नः षड्दन्यविस्तरः ॥१०९॥ नयप्रमाणजीवादिपदार्था न्यायमासुराः । जिनेन्द्रवक्त्रप्रसृता ध्येया सिद्धान्तपद्धतिः ॥१०॥ श्रुतमर्थाभिधानं च "प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा । तस्मिन् ध्येये जगसत्वं ध्येयतामेति कास्न्यतः ॥११॥ अथवा पुरुषार्थस्य परां"काष्टामधिष्ठितः । परमेष्ठी जिनो ध्येयो "निष्ठितार्थो निरञ्जनः ॥११२॥ स हि कर्ममलापायात् शुद्धिमास्यन्तिकी श्रितः । सिद्धो निरामयो ध्येयोध्यातणां"मावसिद्धये ॥११॥ क्षायिकानन्तहग्बोधसुखवीर्यादिभिर्गुणैः । युक्तोऽसौ योगिनां गम्यः सूक्ष्मोऽपि व्यक्तलक्षणः ॥११॥ अमूतों "निष्कलोऽप्येष योगिनां ध्यानगोचरः" । किंचिन्न्यूनान्स्यदेहानुकारी जीवघनाकृतिः ॥१५॥ निःश्रेयसार्थिभिमन्यैः प्राप्तनिःश्रेयसः स हि । ध्येयः श्रेयस्करः सार्वः सर्वक् सर्वमाव वित् ॥१६॥ हैं। ये सब भी ध्यान करने योग्य हैं ॥१०७॥ मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा तथा कर्मोका क्षय होने रूप मोक्ष इस प्रकार ये सात तत्त्व ध्यान करने योग्य हैं अथवा इन्हीं सात तत्त्वोंमें पुण्य और पाप मिला देनेपर नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य हैं ।।१०८।। क्योंकि छह नयोंके द्वारा ग्रहण किये हुए जीव आदि छह द्रव्यों और उनकी पर्यायोंके यथार्थ स्वरूपका बार-बार चिन्तवन करना ही ध्यान कहलाता है, इसलिए छह द्रव्योंका समस्त विस्तार भी ध्यान करने योग्य है ।।१०९॥ नय, प्रमाण, जीव, अजीव आदि पदार्थ और सप्तभंगी रूप न्यायसे देदीप्यमान होनेवाली तथा जिनेन्द्रदेवके मुखसे प्रकट हुई सिद्धान्तशास्त्रोंकी परिपाटी भी ध्यान करने योग्य है अर्थात जैन शास्त्रों में कहे गये समस्त पदार्थ ध्यान करनेके योग्य हैं ॥११०॥ शब्द, अर्थ और ज्ञान इस प्रकार तीन प्रकारका ध्येय कहलाता है। इस तीन प्रकारके ध्येयमें ही जगत्के समस्तपदार्थ ध्येयकोटिको प्राप्त हो जाते हैं । भावार्थ-जगत्के समस्त पदार्थ शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों भेदोंमें विभक्त हैं इसलिए शब्द, अर्थ और ज्ञानके ध्येय ( ध्यान करने योग्य ) होनेपर जगत्के समस्त पदार्थ ध्येय हो जाते हैं ॥१११।। अथवा पुरुषार्थकी परम काष्ठाको प्राप्त हुए, कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाले, कृतकृत्य और रागादि कर्ममलसे रहित सिद्ध परमेष्ठी ध्यान करने योग्य हैं ॥ ११२ ॥ क्योंकि वे सिद्ध परमेष्ठी कर्मरूपी मलके दूर हो जानेसे अविनाशी विशुद्धिको प्राप्त हुए हैं और रोगादि क्लेशोंसे रहित हैं इसलिए ध्यान करनेवाले पुरुषोंको अपने भावोंको शुद्धिके लिए उनका अवश्य ही ध्यान करना चाहिए । ॥११३॥ वे सिद्ध भगवान् कर्मोके क्षयसे होनेवाले अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य आदि गुणोंसे सहित हैं और उनके यथार्थस्वरूपको केवल योगी लोग ही जान सकते हैं । यद्यपि वे सूक्ष्म हैं तथापि उनके लक्षण प्रकट हैं ॥ ११४ ॥ यद्यपि वे भगवान् अमूर्त और अशरीर हैं तथापि योगी लोगोंके ध्यानके विषय हैं अर्थात् योगी लोग उनका ध्यान करते हैं। उनका आकार अन्तिम शरीरसे कुछ कम केवल जीव प्रदेशरूप है ॥११५।। मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको उन्हींसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। वे स्वयं कल्याण रूप हैं, कल्याण करनेवाले हैं, सबका हित करनेवाले हैं, सर्वदर्शी हैं और सब पदार्थोंको जाननेवाले १. आत्मा। २. मम संबन्धि ममकारः । जीवाजीवावित्यर्थः । अहं ममेत्येतद्वयमव्ययपदम् । ३. पुण्यपापसहिता एते नवपदार्थाः । ४. षड्नय अ०,१०, ल० । षड्प द०। षट्प्रकार । ५. यस्मात् कारणात् । ६. ध्येयं ल०, इ०, म० । ७. सप्तभङ्गिरूपविचार स्वराः। ८. वचनरचनाः। ९. शब्दः । १०. ज्ञानम् । ११. अवस्थाम् । १२. कृतकृत्यः । १३. जिनः । १४.-शुद्धये अ०, ५०, नि०, म०, द०, इ०, स०। १५. अशरीरः । १६. ध्येयगो-ल०, म०, द०, ५०।१७. सर्वहितः । १८. सर्वदर्शी । १९. पदार्थ ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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