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The Yogi King, observing the six types of external austerities, which are extremely difficult to perform, also observed the six types of internal austerities, which are mentioned later. (189) The austerity of atonement, in the case of the Muni who does not transgress, has become fulfilled, for what darkness can ever be in the sun? (190) In the same way, his austerity of humility had become internalized, for he, the supreme being, was the one who humbled everyone else. So, who would he be humble towards? (191) Or, he had become humble with the desire to become a Siddha, and worshipped the Siddha Bhagavans, for he had taken initiation by saying, "Salutations to the Siddhas." (192) Or, he had the appropriate humility in his knowledge, vision, conduct, austerity, and strength, for he was truly striving. (193) His austerity of engagement was limited to the three jewels, for the Supreme Lord, where else would he be engaged? (194) The meaning here is that in these three austerities of atonement, humility, and engagement, the Lord Vrishabhadeva was only the controller, not the controlled. He taught these to others, but he himself was not controlled by anyone else, meaning he did not follow these austerities by taking instructions from others. (195)
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________________ विशं पर्व इति बायं तपः षोढा चरन् परमदुश्चरम् । आभ्यन्तरं च षड्भेदं तपो भेजे स योगिराट् ॥१८९॥ प्रायश्चित्तं तपस्तस्मिन् मुनी निरतिचारके । 'चरितार्थमभूत् किं नु मानोरस्त्यान्सर तमः ॥१९॥ प्रश्रयश्च तदास्यासीत् प्रश्रितोऽन्तर्निलीनताम् । विनेता विनयं कस्य स कुर्यादग्रिमः पुमान् ॥१९॥ अथवा प्रश्रयो सिद्धानसौ भेजे सिषित्सयाँ । नमः सिद्धेभ्य इत्येव यतो दीक्षामुपायत ॥१९२॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यगुणेषु च । यथाहं विनयोऽस्यासीद् यतमानस्य तत्वतः ॥१९३॥ वैयावृत्यं च तस्यासी मार्गब्यापूति मात्रकम् । भगवान् परमेष्ठी"हिक्वान्यत्र व्यापृतो' भवेत् ॥१९॥ इदमत्र तु तात्पर्य प्रायश्चित्ताविके त्रये । तपस्यस्मिनियन्तृत्वं न नियम्य स्वमीशितुः ॥११५॥ ॥१८७-१८८।। इस प्रकार वे योगिराज अतिशय कठिन छह प्रकारके बाह्य तपश्चरणका पालन करते हुए आगे कहे जानेवाले छह प्रकारके अन्तरंग तपका भी पालन करते थे ॥१८९॥ निरतिचार प्रवृत्ति करनेवाले मुनिराज वृषभदेवमें प्रायश्चित्त नामका तप चरितार्थ अर्थात् कृतकार्य हो चुका था सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यके वीचमें भी क्या कभी अन्धकार रहता है ? अर्थात् कभी नहीं। भावार्थ-अतिचार लग जानेपर उसकी शुद्धता करना प्रायश्चित्त कहलाता है। भगवान्के कभी कोई अतिचार लगता ही नहीं था अर्थात् उनका चारित्र सदा निर्मल रहता था इसलिए यथार्थमें उनके निर्मल चारित्रमें ही प्रायश्चित्त तप कृतकृत्य हो चुका था। जिस प्रकार कि सूर्यका काम अन्धकारको नष्ट करना है जहाँ अन्धकार होता है वहाँ सूर्यको अपना प्रकाश-पुख फैलानेकी आवश्यकता होती है परन्तु सूर्यके वीचमें अन्धकार नहीं होता इसलिए सूर्य अपने विषयमें चरितार्थ अथवा कृतकृत्य होता है ।।१९।। इसी प्रकार इनका विनय नामका तप भी अन्तर्निलीनताको प्राप्त हुआ था अर्थात् उन्होंमें अन्तर्भूत हो गया था क्योंकि वे प्रधान पुरुष सबको नम्र करनेवाले थे फिर भला वे किसकी विनय करते ? अथवा उन्होंने सिद्ध होनेकी इच्छासे विनयी होकर सिद्ध भगवान्की आराधना की थी क्योंकि 'सिद्धोंके लिए नमस्कार हो' ऐसा कहकर ही उन्होंने दीक्षा धारण की थी । अथवा यथार्थ प्रवृत्ति करनेवाले भगवान्की ज्ञान दर्शन चारित्र तप और वीर्य आदि गुणोंमें यथायोग्य विनय थी इसलिए उनके विनय नामका तप सिद्ध हुआ था॥१९१-१९३॥ रत्नत्रय रूप मार्ममें व्यापार करना ही उनका वैयावृत्त्य तप कहलाता था क्योंकि वे परमेष्ठी भगवान् रत्नत्रयको छोड़कर और किसमें व्यावृत्ति (व्यापार) करते ? भावार्थ-दीन-दुःखी जीबोंकी सेवामें व्यापृत रहनेको वैयावृत्य कहते हैं परन्तु यह शुभ कषायका तीन उदय होते ही हो सकता है । भगवान्की शुभकषाय भी अतिशय मन्द हो गयी थी इसलिए उनकी प्रवृत्ति बाह्य व्यापारसे हटकर रत्नत्रय रूप मागमें ही रहती थी। अतः उसीकी अपेक्षा उनके वैयावृत्य तप सिद्ध हुआ था ॥१९४।। यहाँ तात्पर्य यह है कि स्वामी वृषभदेवके इन प्रायश्चित्त, विनय और चयावृत्त्य नामक तीन तपोंके विषयमें केवल नियन्तापन ही था अर्थात् वे इनका दूसरोंके लिए उपदेश देते थे, स्वयं किसीके नियम्य नहीं थे अर्थात् दूसरोंसे उपदेश ग्रहण कर इनका पालन नहीं करते थे। भावार्थ-भगवान् इन तीनों तपोंके स्वामी थे न कि अन्य मुनियोंके १. कृतार्थम् । २. रस्यन्तरं इ० । ३. विनयः । ४. जनान् विनयवतः कुर्वन्नित्यर्थः । ५. से मिथ्या। ६. 'अयि गतौ' इति धातुः, उपागमत् स्वीकृतवानित्यर्थः । ७. प्रयत्नं कुर्वाणस्य । ८. रत्नत्रयव्यापारमात्रकम् । ९. म्यावृति इ०, स०, ५०, ल० ।-व्यावृत्ति-अ०, द०। १०. परं पदे तिष्ठतीति । ११. यावत्यकृतः। व्यावृतो इ०, अ०, ५०, स०, ल. । १२. नायकत्वम् । १३. नेयत्वम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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