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________________ एकोनविंशं पर्व ४३३ पुष्पिताग्रावृत्तम् इह खगवनिता नितान्तरम्याः मुरभिसरोजवना वनान्तवीथीः ।। परिहितरसनैः शनैः श्रयन्ते जितपुलिनधनैर्घनः सुदत्यः ॥१२९॥ सरसकिसलयप्रसूनक्लुप्ति विततरिपूर्णि वनानि नूनमस्मिन् । । 'दुतमित इत इस्यमूः खगस्त्रीरलिविस्तैरवि राममायन्ति ॥१३०॥ कुसुमितवनषण्डमध्यमेता तरुगहनेन धनीकृतान्धकारम् । 'स्वतनुरुचिविधूतरप्टिरोधाः खगवनिता बहुदीपिका विशन्ति ॥१३१॥ कुसुमरसपिपासया निलीनरलिभिरनारतमारुवद्भिरासाम् । युवतिकरजलून पल्लवानामनुरुदित नु" वितन्यते लतानाम् ॥१३२॥ कुसुमरचितभूषणावतंसाः कुसुमरजःपरिपिजरस्तनान्ताः। कुमुमशरशरायितायताक्ष्यः तदपचिताय विभान्त्यमूः खचर्यः ॥१३॥ वसन्ततिलकम् ताः संचरन्ति कुमापचये तरुण्यः सक्का" वनेषु ललितभ्रुविलोलनेत्रा । तन्यो नखोर किरणोद्गममअरीका व्यालोलषट्पदकुला इव हेमवरुपयः ॥१३॥ हो रही हैं ऐसा यह वन कितना सुन्दर सुशोभित हो रहा है ।।१२८॥ इधर, जो सुगन्धित कमलोंके वनोंसे सहित हैं और जो अतिशय मनोहर जान पड़ती हैं ऐसी इन वनकी गलियोंमें ये सुन्दर दाँतोंवाली विद्याधरोंकी स्त्रियाँ करधनी पहने हुए और नदियोंके किनारेके बालूके टीलोंको जीतनेवाले अपने बड़े-बड़े जघनों (नितम्बो) से धीरे-धीरे जा रही हैं ।।१२९।। इधर, इस पर्वतपर के वन सरस पल्लव और पुष्पोंकी रचना मानो बाँट देना चाहते हैं इसीलिए वे भ्रमरोंके मनोहर शब्दों के बहाने 'इधर इस वृक्षपर आओ, इधर इस वृक्षपर आओ' इस प्रकार निरन्तर इन विद्याधरियोंको बुलाते रहते हैं ॥१३०।। इधर वृक्षोंकी सघनतासे जिसमें खूब अन्धकार हो रहा है, ऐसे फूले हुए 'वनके मध्यभागमें अपने शरीरकी कान्तिसे दृष्टिको रोकनेवाले अन्धकारको दूर करती हुई ये विद्याधरियाँ साथमें अनेक दीपक लेकर प्रवेश कर रही हैं ॥१३॥ इधर, इन तरुण त्रियोंने अपने नाखूनोंसे इन लताओंके नवीन-कोमल पत्ते छेद दिये हैं इसलिए फूलोंका रस पीनेकी इच्छासे इन लताओंपर बैठे और निरन्तर गुंजार करते हुए इन भ्रमरोंके द्वारा ऐसा जान पड़ता है मानो इन लताओंके रोनेका शब्द ही फैल रहा हो ॥१३२।। इधर, जिन्होंने फूलोंके कर्णभूषण बनाकर पहिने हैं, फूलोंकी परागसे जिनके स्तनमण्डल पीले पड़े गये हैं और जिनकी बड़ी-बड़ी आँखें कामदेवके बाणके समान जान. पड़ती हैं ऐसी ये विद्याधरियाँ फूल तोड़नेके लिए इस पर्वतपर इधर-उधर जा रही हैं ॥१३॥ जिनको-भौंहें सुन्दर है, नेत्र अतिशय चंचल हैं, नखोंकी किरणें निकली हुई मंजरियों के समान हैं और जो फूल तोड़नेके लिए वनोंमें तल्लीन हो रही हैं ऐसी ये तरुण त्रियाँ जहाँ १.परिक्षिप्तकाञ्चीदामैः । २. शोभना दन्ता यासां ताः। ३. रचनाम् । ४. विस्तारयितुमिच्छनि । ५. इव । ६. द्रुममित ल०, म०, द.। द्रुवमित इत्यपि क्वचित् । ७. अनवरतमित्यर्थः । ८. दुर्गमेन । ९. निजदेहकान्तिनिर्धूतान्धकाराः । १०. दीपिकासदृशाः। ११. आ समन्तात् ध्वनद्भिः । १२. नखच्छेदित । १३. अनुगतरोदनम् । १४. इव । तु प०, अ०, ल०, म०। १५. पुष्पादाने पुष्पापचये इत्यर्थः। १६. भासक्ताः। १७. पुष्प । ५५
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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