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400 This act of service has been performed by us before. But the time for our pride in our lineage has passed, and now we are in danger of losing our lives. ||29|| We have been living in the forest, without food or drink, ever since the Lord entered it. We have stood firm for as long as we could, but now we are weak. What should we do? ||30|| The Lord is merciless, making us perform this useless penance. Should we, who are weak, compete with him and die? ||31|| This Lord will not return home. Who is capable of following his path? He is a free-willed being, and his actions should not be imitated by anyone. ||32|| Is my mother alive? Is my father alive? Does my wife remember me? Are my people well? ||33|| Unable to stay there, many people expressed their inner thoughts and, desiring to go home, repeatedly went before the Lord and bowed down at his feet. ||34|| Some said, "Ah, this Lord is a great hero! He has conquered his own self and has renounced the wealth of his kingdom for some reason. He will surely be reunited with it again." ||35|| The best of speakers, the Lord Vrishabhadeva, who is steadfast in his resolve, will surely end his penance today or tomorrow and be reunited with his kingdom. Then, he will surely expel us, who have lost our enthusiasm or have been deceitful in this matter, and make us destitute. ||36-37|| Or, if we leave the Lord, King Bharata will torment us. Therefore, we will endure until the Lord's penance is complete. ||38||
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________________ ४०० आदिपुराणम् भृत्याचारोऽयमस्माभिः पूर्व सर्वोऽप्यनुष्ठितः । कालः कुलाभिमानस्य गतोऽथ प्राणसंकटे ॥२९॥ वने प्रवसतोऽस्मामिन भुक्तं जीवनं प्रमोः । यावच्छताः स्थितास्तावदशक्ताः किं नु कुर्महे ॥३०॥ मिथ्या कारयते योग गुरु रस्मासु निर्दयः । स्पर्धा कृत्वा सहैतेन मर्तव्यं किमशनकैः ॥३१॥ अनिवर्ती गुरुः सोऽयं कोऽस्यान्वेतुं पदं क्षमः । देवः स्वच्छन्दचार्येष न देवचरितं चरेत् ॥३२॥ कञ्चिज्जीवति मे माता कच्चिज्जीवति मे पिता। कच्चित् स्मरन्ति नः कान्ताः कच्चिनः सुस्थिताः प्रजाः' इति स्वान्तर्गत केचिदच्छोद्यस्थातुमक्षमाः । अच्छ' व्रज्य गुरोः पादौ प्रणतो" गमनोत्सुकाः॥३४॥ अहो गुरुरयं धीरः किमप्युरिश्य कारणम् । जितास्मा त्यक्तराज्यश्रीः पुनः संयोक्ष्यते तया ॥३५॥ यदायमच वा श्वो वा योगं संहस्य धीरधीः । निजराज्यश्रिया भूयो योक्ष्यते वदतां वरः ॥३६॥ तदास्मान्स्वामिकायेंऽस्मिन् भग्नोत्साहान् कृतच्छलान्' निर्वासयेदसत्कृत्य कुर्याद्वा वीतसंपदः॥३७॥ भरतो वा गुरुं त्यक्त्वा गतानस्मान् विकर्शयेत् । तद्यावद्योगनिष्पत्तिविभोस्तावत्सहामहे ॥३८॥ ។។ इन्होंने तपश्चरण करना प्रारम्भ किया तब हम लोगोंने तप भी धारण किया। इस प्रकार सेवकका जो कुछ कार्य है वह सब हम पहले कर चुके हैं परन्तु हमारे कुलाभिमानका वह समय आज हमारे प्राणोंको संकट देनेवाला बन गया है अथवा इस प्राणसंकट के समय हमारे कुलाभिमानका वह काल नष्ट हो गया है ॥२८-२९|| जबसे भगवानने वनमें प्रवेश किया है तबसे हमने जल भी ग्रहण नहीं किया है । भोजन पानके बिना ही जबतक हम लोग समर्थ रहे तबतक खड़े रहे परन्तु अब सामर्थ्यहीन हो गये हैं इसलिए क्या करें॥३०॥ मालूम होता है कि भगवान् हमपर निर्दय हैं-कुछ भी दया नहीं करते, वे हमसे झूठमूठ ही तपस्या कराते हैं, इनके साथ बराबरीकी स्पर्धा कर क्या हम असमर्थ लोगोंको मर जाना चाहिए ? ॥३१॥ ये भगवान अब घरको नहीं लौटेंगे, इनके पदका अनुसरण करने के लिए कौन समर्थ है ? ये स्वच्छन्दचारी हैं इसलिए इनका किया हुआ काम किसीको नहीं करना चाहिए॥३२॥ क्या मेरी माता जीवित हैं, क्या मेरे पिता जीवित हैं, क्या मेरी स्त्री मेरा स्मरण करती है और क्या मेरी प्रजा अच्छी तरह स्थित है ? ॥३॥। इस प्रकार वहाँ ठहरनेके लिए असमर्थ हुए कितने ही लोग अपने मनकी बात स्पष्ट रूपसे कहकर घर जानेकी इच्छासे बार-बार भगवान के सम्मुख जाकर उनके चरणोंको नमस्कार करते थे ॥३४॥ कोई कहते थे कि अहा, ये भगवान बड़े ही धीर-वीर हैं इन्होंने अपनी आत्माको भी वश कर लिया है और इन्होंने किसी-न-किसी कारणको उद्देश्य कर राज्यलक्ष्मीका परित्याग किया है इसलिए फिर भी उससे युक्त होंगे अर्थात् राज्यलक्ष्मी स्वीकृत करेंगे ॥३५।। स्थिर बुद्धिको धारण करनेवाले और बोलनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् वृषभदेव जब आज या कल अपना योग समाप्त कर अपनी राज्यलक्ष्मीसे पुनः युक्त होंगे तब भगवान के इस कार्यमें जिन्होंने अपना उत्साह भग्न कर दिया है अथवा छल किया है ऐसे हम लोगोंको अपमानित कर अवश्य ही निकाल देंगे और सम्पत्तिरहित कर देंगे अर्थात् हम लोगोंकी सम्पत्तियाँ हरण कर लेंगे ॥३६-३७॥ अथवा यदि हम लोग भगवानको छोड़कर जाते हैं तो भरत महाराज हम लोगोंको कष्ट देंगे इसलिए जबक भगवानका योग समाप्त होता है तबतक हम लोग १. गतोऽय म०, ल.। २. प्रविशतो-म०, ल.। ३. अशनपानादि । ४. प्रभोः सकाशात् । ५. ईय॑येत्यर्थः । ६. प्रभुर-म०, ल०। ७. असमर्थरस्माभिः। ८. पदवीम् । ९. 'कच्चित् किंचन संशये' इति धनंजयः । कच्चित् इष्टप्रश्ने । 'कच्चित् कामप्रवैदने' इत्यमरः । १०. स्मरति नः कान्ता प० । किंचित् स्मरति मे कान्ता अ०। कच्चित् स्मरति मे कान्ता म०, ल.। ११. पुत्राः । १२. दृढमभिधाय । अच्छेत्यव्ययेन समासे ल्यब भवति । १३. वस्तुम् । १४. अभिमुखं गत्वा । अनुग्रज्य प०, म०, ल०। १५. प्रणताः सन्तः । १६. जितेन्द्रियः। १७. निष्कासयेत् । १८. विगतः । १९. तत्कारणात् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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