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________________ ३५३ पोडशं पर्व ते च 'किंचिदिवोनिजतनकुटमलशोभिनि । वयस्यनन्तरे वाल्या वर्तमाने मनोहरे ॥७॥ मंभाविन्यो 'विनीते च सुशीले चारुलक्षणे । रूपवत्या यशस्विन्यो श्लाध्ये मानवती जनैः ॥७५।। 'अधिक्षोणिपदन्यासैहसीगतिविम्बिमिः । रकाम्बुजोपहारस्य तन्वाने परितः श्रियम् ॥७६॥ नखदर्पणसंक्रान्तस्वाङ्गन्छाया पदेशतः । कास्या न्यकृस्य दिक्कन्याः पद्धयां क्रष्टुमिवोचते ॥७॥ सलील पदविन्यासरणन्नू पुरनिकणः। शिक्षयन्त्याविवाहूय हंसीः स्वं गतिविभ्रमम् ॥७८।। चारूरू रुचिमजतकान्तिमति रेकिणीम् । जनानां रक्पथे स्वैरं विक्षिपन्त्याविवाभितः ।।७।। दधाने जघना भोगं कात्रीत्यरवाबितम् । सौभाग्यदेवतावासमिांशुकवितानकम् ॥८॥ लावण्यदेवतां यष्टु'मनगाव युणा कृतम् । हेमकुण्डमिवानिम्नं दधत्यो नामिमण्डलम् ।।८।। वहम्स्यौ किंचिदुद्भुत"श्यामिको रोमराजिकाम् । मनोमवगृहावेशभूपधमशिखामिव ॥४२॥ तनुमध्ये कृशोदर्यावारतकरपल्लवे । मृदुबाहुलते किंचिदुनिलकुच कुट्मले ॥४३॥ दधाने रुचिरं हारमाकान्तस्तनमण्डलम् । तदा श्लेषसुखासङ्गात् "स्मयमानमिवांशुभिः ।।८४॥ वे दोनों ही पुत्रियाँ कुछ-कुछ उठे हुए स्तनरूपी कुड्मलोंसे शोभायमान और बाल्य अवस्थाके अनन्तर प्राप्त होनेवाली किशोर अवस्थामें वर्तमान थीं अतएव अतिशय सुन्दर जान पड़ती थीं ॥७४। वे दोनों ही कन्याएँ बुद्धिमती थीं, विनीत थीं, सुशील थीं, सुन्दर लक्षणोंसे सहित थीं, रूपवती थीं और मानिनी त्रियोंके द्वारा भी प्रशंसनीय थीं ॥७५।। हंसीकी चालको भी तिरस्कृत करनेवाली अपनी सुन्दर चालसे जब वे पृथिवीपर पैर रखती हुई चलती थीं, तब वे चारों ओर लालकमलोंके उपहारकी शोभाको विस्तृत करती थीं ।।७६।। उनके चरणोंके नखरूपी दर्पणोंमें जो उन्हीके शरीरका प्रतिविम्ब पड़ता था उसके छलसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अपनी कान्तिसे तिरस्कृत हुई विकन्याओंको अपने चरणोंसे रौंदने के लिए ही तैयार हुई हों।।७।। लीलासहित पैर रखकर चलते समय हनन शब्द करते हुए उनके नूपुरोंसे जो सुन्दर शब्द ते थे उनसे वे ऐसी मालूम होती थी मानो नूपुरोके शब्दों के बहाने हंसियोंको बुलाकर उन्हें अपनी गतिका सुन्दर विलास ही सिलला रही हो ॥७८॥ जिनके ऊर अतिशय सुन्दर और जंघाएँ अतिशय कान्तियुक्त हैं ऐसी वे दोनों पुत्रियाँ ऐसी जान पड़ती थी मानो उनकी बढ़ती हुई कान्तिको वे लोगोंके नेत्रोंके मार्गमें चारों ओर स्वयं ही फेंक रही हो ॥७९॥ वे पुत्रियाँ जिस स्थूल जपन भागको धारण कर रही थीं वह करधनी तथा अधोवबसे मुशोभित था और ऐसा मालूम होता था मानो करधनीरूपी तुरहीवाजोंसे सुशोभित और कपड़े के चॅदोवासे युक्त सौभाग्य देवताके रहनेका घर ही हो ॥८०॥ कन्याएँ जिस गम्भीर नाभिमण्डलको धारण किए हुई थीं वह ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवल्पी यजमानने लावण्यरूपी देवताको पूजाके लिए होमकुण्ड ही बनाया हो ।।८।। जिसमें कुछ-कुछ कालापन प्रकट हो चुका है ऐसी सिसरोमराजीको वे पुत्रियाँ धारण कर रही थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेवके गृहप्रवेशके समय खेई हुई-धूपके धूमकी शिखा हो हो ||८|| उन दोनों कन्याओंका मध्यभाग कृश था, उदर भी कृश था, हस्तरूपी पल्लव कुछ-कुछ लाल थे, भुजलताएँ कोमल थीं और स्तनरूपी कुडमल कुल-कुछ ऊँचे उठे हुए थे ।।८।। वे पुत्रियाँ स्तनमण्डलपर पड़े हुए जिस मनोहर हारको धारण किए हुई थीं वह अपनी किरणोंसे ऐसा शोभायमान हो रहा ५. मानो १. किंचिदित्यर्थः । २. विनयपरे । ३. मान्यस्त्रीजनैः । ४ पृथिव्याम् । ५. व्याजतः । ६. अधः कृत्वा । न्यवकृत- ल०। ७. कर्षणाय । ८ ऊरुजङ्घाकान्तिम् । ९. अत्युत्कटाम् । १०. विस्तीर्णम् । ११. पूजयितुम् । १२. याजकेन । १३. कृष्णवर्णाम् । १४. -कुड्मले द०, स०, म०, ल.। १५ तत्कुचमडलालिङ्गनसुखासक्तः । १६. हसन्तम् । ४५
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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