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________________ ३५० आदिपुराणम् लसदसनमामुक्त रशनं जघनं धनम् । 'कायमानमिवानगनृपतेः 'कृतनिर्वृति ॥४१॥ पीनौ चारुरुचावूरू नारीजनमनोरमौ । जङ्के विनिर्जिताननिषङ्ग रुचिराकृतो ॥४२॥ सर्वाङ्गसंगता कान्तिमिवोच्चिस्य ' तामधः । क्रमौ विनिर्मिती लक्ष्म्या 'न्यक्कृतारुणपङ्कजी ॥४३॥ तेषां प्रत्यङ्गमयुद्धां शोमा स्वात्मगतैव या । तस्समुस्कीर्तनैवालं" "खलूक्त्वा वर्णनान्तरम् ॥४४॥ निसर्गरुचिराण्येषां वषि मणिभूषणः । भृशं रुरुचिरे पुष्पैर्वनानीव विकासिमिः ॥४५॥ तेषां विभूषणान्यासन् मुक्तारत्नमयानि वै । यष्टयो हारभेदाश्च रत्नावल्यश्च नैकधा ॥४६॥ यष्टयः शीर्षकं चोपशीर्षकं चावघाटकम् । प्रकाण्डकं च तरलप्रबन्धश्चेति प्राधा ॥४७॥ केषांचिच्छीर्षकं यष्टिः केषांचिदुपशीर्षकम् । अवघाटकमन्येषामपरेषां प्रकाण्डकम् ॥४८॥ तरलप्रतिबन्धश्च केषांचित् कण्ठ भूषणम् । मणिमध्याश्च शुद्धाश्च तास्तेषां यष्टयोऽभवन्" ॥४९॥ "सूत्रमकावली सैव यष्टिः स्यान्मणिमध्यमा। "रत्नावली भवेत सैव सुवर्णमणिचित्रिता ॥५०॥ "युक्तप्रमाणसौवर्णमणिमाणिक्यमौक्तिकः । सान्तरं प्रथिता भूषा' भवेयुरपवर्तिका ॥५१॥ है और करधनी लटक रही है ऐसे उनके स्थूल नितम्ब ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवरूपी राजाके सुख देनेवाले कपड़ेके बने हुए तम्बू ही हों ॥४१॥ उनके ऊरु स्थूल थे, सुन्दर कान्तिके धारक थे और स्त्रीजनोंका मन हरण करनेवाले थे । उनको जंघाएँ कामदेवके तरकशकी सुन्दर आकृतिको भी जीतनेवाली थीं ॥४२॥ अपनी शोभासे लाल कमलोंका भी तिरस्कार करनेवाले उनके दोनों पैर ऐसे जान पड़ते थे मानो समस्त शरीर में रहनेवाली जो कान्ति नीचेकी ओर बहकर गयी थी उसे इकट्ठा करके ही बनाये गये हों॥४३॥ इस प्रकार उन राजकुमारोंके प्रत्येक अंगमें जो प्रशंसनीय शोभा थी वह उन्हींके शरीरमें थीं-वैसी शोभा किसी दूसरी जगह नहीं थी इसलिए अन्य पदार्थोंका वर्णन कर उनके शरीरकी शोभाका वर्णन करना व्यर्थ है ॥४४॥ न राजकुमारोंके स्वभावसे ही सुन्दर शरीर मणिमयो आभषणोंसे ऐसे सशोभित हो रहे थे जैसे कि खिले हुए फूलोंसे वन सुशोभित रहते हैं ॥४५॥ उन राजकुमारोंके यष्टि, हार और रत्नावली आदि, मोती तथा रत्नोंके बने हुए अनेक प्रकारके आभूषण थे ॥४६॥ उनमें से यष्टि नामक आभूषण शीर्षक, उपशीर्षक, अवघाटक, प्रकाण्डक और तरलप्रबन्धके भेदसे पाँच प्रकारका होता है ॥४७॥ उन राजकुमारोंमें किन्हींके शीर्षक, किन्हींके उपशीर्षक, किन्हींके अवघाटक, किन्हींके प्रकाण्डक और किन्हींके तरलप्रतिबन्ध नामको यष्टि कण्ठका आभूषण हुई थी। उनकी वे पाँचों प्रकारकी यष्टियाँ मणिमध्या और शुद्धाके भेदसे दो-दो प्रकारकी थीं। [जिसके बीच में एक मणि लगा हो उसे मणिमध्या और जिसके बीच में मणि नहीं लगा हो उसे शुद्धा यष्टि कहते हैं । ] ॥४८-४९॥ मणिमध्यमा यष्टिको सूत्र तथा एकावली भी कहते हैं और यदि यही मणिमध्यमा यष्टि सुवर्ण तथा मणियोंसे चित्र विचित्र हो तो उसे रत्नावली भी कहते हैं ।।२०।। जो यष्टि किसी निश्चित प्रमाणवाले सुवर्णमणि, माणिक्य और मोतियोंके द्वारा १. प्रतिबद्ध । २. पटकुटी। ३. विहितसुखम् । ४. इषुधिः । ५. संगृह्म, संहृद्य । ६. स्यन्दमानाम् । ७. पादौ । ८. अध:कृतः । ९. प्रशस्ता। १०. पर्याप्तम् । ११. [ बचनेनालम् ] अस्य पदस्योपरि सूत्रम् [ अलंखल्योः प्रतिषेधयोः] पाणिनीयम् । १२. कण्ठाभरण-भूततरलप्रतिबन्धश्चेति यष्टिः इदानीं यष्टिविशेषमुक्त्वा सामान्या द्विप्रकारा एवेति सूचयति । १३. कुमाराणाम् । १४. ता यष्टयः मणिमध्याः शुद्धाश्चेति सामान्यतः द्विधाभवन् । १५. या यष्टि: मणिमध्यमा स्यात् सैव सूत्रमिति । एकावलीति च नामदयी स्यात् । १६. सैव सुवर्णेन मणिभिश्च चित्रिता चेत् रत्नावलीति नामा स्यात् । १७. योग्यप्रमाण । १८. द्वाभ्यां त्रिभिश्चभिः पञ्चभिर्वा सुवर्णमणिमाणिक्यमौक्तिकः सान्तरं यथा भवति तथा रचिता भूषा अपवर्तिका भवेयुः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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