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________________ षोडश पर्व ३४९ तन्मुखामोदमाघ्रातुमायान्ती भ्रमरावली। सर्वाङ्गीणं तदामोदमन्त्रभूत् क्षणमाकुला ॥३२॥ रस्नकुण्डलयुग्मेन मकराकेण भूषितम् । कर्णद्वयं बभी तेषां मदनेनेव चिह्नितम् ॥३३॥ नेत्रोत्पलद्वयं तेषामिषूकृत्य मनोभवः । भ्रलताचापयष्टिभ्यां स्त्रीसृष्टिं वशमानयत् ॥३४॥ वपुर्वीप्तं मुखं कान्तं मधुरो नेत्रविनमः । कर्णावभ्यर्ण विश्रान्तनेत्रोत्पलवतंसिती ॥३५॥ ध्रुवौ सविभ्रम शस्तं ललाटं नासिकाचिता । कपोलावुपमातीता वपोदितशशिश्रियौ ॥३६॥ रक्तो रागरसेनेव पाटलो दशनच्छदः । स्वरी मृदङ्गनिर्घोषगम्भीरः श्रुतिपेशल: ॥३७॥ सूत्रमार्गमनुप्रोतैः'जगच्चेतोऽमिनन्दिभिः । कण्ठचैरिवाक्षरः शुद्धः कण्ठो मुक्काफलवृतः ॥३८॥ वक्षो लक्ष्म्या परिष्वक्कमसौ च विजयश्रिया। 'व्यायामकर्कशी बाहू पीनावाजानुलम्बिनी ॥३९॥ नामिः शोभानिधानोवीं चा: 'निर्वापणी दशाम् । तनुमध्यं जगन्मध्य निर्विशेषमशेषतः १०॥ होकर भ्रमर आकर उन बालोंमें विलीन होते थे जिससे वे बाल ऐसे मालूम होते थे जिससे मानो वृद्धिसे सहित ही हो रहे हों ॥३१॥ उन राजकुमारोंके मुखकी सुगन्ध सूंघनेके लिए जो भ्रमराकी पंक्ति आती थी वह क्षण-भरके लिए व्याकुल होकर उनके समस्त शरीरमें व्याप्त हुई सुगन्धिका अनुभव करने लगती थी। भावार्थ-उनके समस्त शरीरसे सुगन्धि आ रही थी इसलिए 'मैं पहले किस जगहकी सुगन्धि ग्रहण करूँ' इस विचारसे भ्रमर क्षण भरके लिए व्याकुल हो जाते थे ॥३२॥ उन राजकुमारोंके दोनों कान मकरके चिह्नसे चिह्नित रत्नमयी कुण्डलोंसे अलंकृत थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवने उनपर अपना चिह्न ही लगा दिया हो ॥३३॥ कामदेवने उनके नेत्ररूपी कमलोंको वाण बनाकर और उनकी भौंहरूपी लताओंको धनुषकी लकड़ी बनाकर समस्त स्त्रियोंको अपने वशमें कर लिया था ॥३४॥ उनका शरीर देदीप्यमान था, मुख मुन्दर था, नेत्रोंका विलास मधुर था और कान समीपमें विश्राम करनेवाले नेत्ररूपी कमलोंसे सुशोभित थे ।।३५।। उनकी भौंहें विलाससे सहित थीं, ललाट प्रशंसनीय था, नासिका सुशोभित थी और उपमारहित कपोल चन्द्रमाकी शोभाको भी तिरस्कृत करनेवाले थे ।।३६।। उनके ओठ कुछ-कुछ लाल वर्णके थे मानो अनुरागके रससे ही लाल वर्णके हो गये हों और स्वर मृदंगके शव्दके समान गम्भीर तथा कानोंको प्रिय था॥३०॥ उनके कण्ठ जिन मोतियोंसे घिरे हुए थे वे ठीक कण्ठसे उच्चारण होने योग्य अक्षरोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार अक्षर सूत्रमार्ग अर्थात् मूल ग्रन्थके अनुसार गुम्फित होते हैं उसी प्रकार वे मोती भी सूत्रमार्ग अर्थात् धागामें पिरोये हुए थे, अक्षर जिस प्रकार जगत्के जीवोंके चित्तको आनन्द देनेवाले होते हैं उसी प्रकार वे मोतीभी उनके चित्तको आनन्द देनेवाले थे, अक्षर जिस प्रकार कण्ठस्थानसे उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मोती भी कण्ठस्थानमें पड़े हुए थे, और अक्षर जिस प्रकार शुद्ध अर्थात् निर्दोप होते हैं उसी प्रकार वे मोती भी शुद्ध अर्थात् निर्दोष थे ॥३८।। उनका वक्षःस्थल लक्ष्मीसे आलिङ्गित था, कन्धे विजयलक्ष्मीसे आलिङ्गित थे और घुटनों तक लम्बी भुजाएँ व्यायामसे कठोर थीं ॥३९।। उनको नाभि शोभाके खजानेकी भूमि थी, सुन्दर थी और नेत्रोंको सन्तोष देनेवाली थी। इसी प्रकार उनका मध्यभाग अर्थात् कटिप्रदेश भी ठीक जगत्के मध्यभागके समान था ॥४०॥ जिनपर वस्त्र शोभायमान हो रहा १. सर्वावयवेषु भवम् । २. समीपः । ३. दूषिता। -वपोहित-अ०, स., ल.। ४. रञ्जितः । ५. सूत्रम्, पक्षे तन्तुम् । 'अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवा च सूत्रं सूत्रकृतो विदुः॥' ६. यष्टीकृतः, पक्षे अनुग्रथितैः । ७. कण्ठयोग्यः, पक्षे कण्ठभवैः। ८. कलङ्कुदिदोषरहित:, शब्दार्थादिदोषरहितः । ९. आलिङ्गितम् । १०. शस्त्राद्यभ्यासः । ११. सुखकारिणी । १२. समानम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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