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आदिपुराणम् स्तनाम्जकुमले दीर्घरोमराज्यकनालके । ते पमिन्याविवाघत्तां नीमचूचुकषट्पदे ॥४०॥ 'मुक्ताहारेण तन्ननं तपस्तेपे स्वनामजम् । यतोऽवाप स तस्कण्ठकुचस्पर्शसुखामृतम् ॥४१॥ एकावल्या स्तनोपान्तस्पर्शिन्या ते विरंजतुः । सख्येव कण्ठसंगिन्या स्वच्छया स्निग्धमुक्कया ॥२ हारं नक्षत्रमालाख्यं ते स्तनान्तरलम्बिनम् । दधतुः कुचसंस्पर्शाद्धसन्तमिव रोचिषा ॥४३॥ मृद भुजलते चाा वधिषातां सुसंहते । नखांशुकुसुमो दे दंधाने हसितश्रियम् ॥८४।। मुखेन्दुरेनयोः कान्तिमधान्मुग्धस्मितांशुभिः । ज्योत्स्नालक्ष्मी समातन्वन् जगतां कान्तदर्शनः॥५॥ सुपश्मणी तयोर्ने रेजाते स्मिग्धतारकं । यथोरपले समुत्फुल्ले केसरालग्नषट्पदे ॥८६॥ 'नामकर्मविनिर्माणरुचिरे सुभ्रुवोर्बुवा। चापयष्टिरनङ्गस्य नानुयातुमलं तराम् ॥४७॥ अथवा रोमराजिरूपी लताके मूलमें चारों ओरसे बंधा हुआ पाल ही हो ॥७९॥ जिस प्रकार कमलिनी कमलपुष्पकी बोड़ियोंको धारण करती है उसी प्रकार वे देवियाँ स्तनरूपी कमलकी बोंड़ियोंको धारण कर रही थीं, कमलिनियोंके कमल जिस प्रकार एक नालसे सहित होते हैं उसी प्रकार उनके स्तनरूपी कमल भी रोमराजिरूपी एक नालसे सहित थे और कमलोपर जिस प्रकार भौरे बैठते हैं उसी प्रकार उनके स्तनरूपी कमलोंपर भी चूचुकरूपी भौंरे बैठे हुए थे। इस प्रकार वे दोनों ही देवियाँ ठीक कमलिनियोंके समान सुशोभित हो रही थीं ।।८।। उनके गले में जो मुक्ताहार अर्थात् मोतियोंके हार पड़े हुए थे, मालूम होता है कि उन्होंने अवश्य ही अपने नामके अनुसार (मुक्त+आहार) आहार-त्याग अर्थात् उपवासरूप तप तपा था और इसीलिए उन मुक्ताहारोंने अपने उक्त तपके फलस्वरूप उन देवियोंके कण्ठ और कुचके स्पर्शसे उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृतको प्राप्त किया था ॥१॥
गले में पड़े हुए एकावली अर्थात् एक लड़के हारसे वे दोनों ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो किसी सखीके सम्बन्धसे ही शोभायमान हो रही हों क्योंकि जिस प्रकार सखी स्तनोंके समीपवर्ती भागका स्पर्श करती है उसी प्रकार वह एकावली भी उनके स्तनोंके समीपवर्ती भागका स्पर्श कर रही थी, सखी जिस प्रकार कण्ठसे संसर्ग रखती है अर्थात् कण्ठालिंगन करती है उसी प्रकार वह एकावली भी उनके कण्ठसे संसर्ग रखती थी अर्थात् कण्ठमें पड़ी हुई थी, सखी जिस प्रकार स्वच्छ अर्थात् कपटरहित-निर्मलहृदय होती है उसी प्रकार वह एकावली भी स्वच्छ-निर्मल थी और सखी जिस प्रकार स्निग्धमुक्ता होती है अर्थात् स्नेही पति के द्वारा
डी-भेजो जाती हैं. उसी प्रकार वह एकावली भी स्निग्धमुक्ता थी अर्थात चिकने मोतियोंसे सहित थी ।।२॥ वे देवियाँ अपने स्तनोंके बीचमें लटकते हुए जिस नक्षत्रमाला अर्थात् सत्ताईस मोतियोंके हारको धारण किये हुई थीं वह अपनी किरणोंसे ऐसा मालूम होता था मानो स्तनोंका स्पर्श कर आनन्दसे हँस हो रहा हो ॥८॥ वे देषियाँ नखोंकी किरणेंरूपी पुष्पोंके विकाससे हास्यको शोभाको धारण करनेवाली कोमल, सुन्दर और सुसंगठित भुजलताओंको धारण कर रही थीं ॥८४।। उन दोनोंके मुखरूपी चन्द्रमा भारी कान्तिको धारण कर रहे थे, वे अपने सुन्दर मन्द हास्यकी किरणोंके द्वारा चाँदनीकी शोभा बढ़ा रहे थे, और देखनेमें संसारको बहुत ही सुन्दर जान पड़ते थे ॥८५॥ उत्तम बरौनी और चिकनी अथवा स्नेहयुक्त तारोंसे सहित उनके नेत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनके केशपर भ्रमर आ लगे हैं ऐसे फूले हुए कमल ही हों ।।६।। सुन्दर भौंहोंवाली उन देवियोंकी दोनों भौंह नामकमके द्वारा इतनी सुन्दर बनी थीं कि कामदेवकी धनुषलता भी उनकी बराबरी
१. मौक्तिकहारेण । २. इव । ३. मुक्ताहारनामभवम् । ४. मसृणमुक्तया, पक्षे प्रियतमप्रेषितया । ५. अधत्तामित्यर्थः । ६. विकासैः । ७. कनीनिके। ८. नामकर्मकरण । नामकर्मणा विनिर्माणं तेन रुचिरे इत्यर्थः । ९. अनुकर्तुम् ।