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पदर्श पर्व
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३३१ तम्थ्यौ' कच्छमहाकच्छजाभ्यो' सौम्ये पतिवरे । "यशस्वती सुनन्दारूये स एवं पर्यणीनयत् ॥७०॥ पुरुः पुस्र्गुणो देवः ‘परिणेतेति संभ्रमात् । परं कल्याणमातेनुः सुराः प्रीतिपरायणाः ॥ ७१ ॥ पश्यन्पाणिगृहीत्य ते नाभिराजः सनाभिभिः । समं समतुषत् प्रायः लोकधर्मप्रियो जनः ॥ ७२ ॥ पुरुदेवस्य कल्याणे मरुदेवी तुतोष सा । दारकर्मणि पुत्राणां प्रीत्युत्कर्षो हि योषिताम् ॥७३॥ " दिष्ट्या स्म बर्द्धते देवी पुत्रकल्याणसंपदा | कलयेन्दोरिवाम्भोधिवेला कल्लोलमालिनी ॥७४॥ पुरोर्विवाहकल्याणे प्रीतिं भेजे जनोऽखिलः ।" स्वभोगीनता भोक्तुर्भोंगांल्लोकोऽनुरुध्यते" ॥७५॥ प्रमोदाय नृलोकस्य न परं स महोत्सवः । स्त्रर्लोकस्यापि संप्रीतिमतनोदतनीयसीम् ॥७६॥ "वरोरू चारुजते ते" मृदुपादपयोरुहे । " सुश्रोणिनाघरेणापि " कार्यनाजयतां जगत् ॥७७॥
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"बरारोहे तनूदय रोमराजि" तनीयसीम् । अधत्तां कामगन्धेभम दखुति "मिवाप्रिमाम् ॥७८॥ नाभि कामरसस्यैककू पिकां विभृतः स्म ते । रोमराजीलतामूलबद्धां पालीमिवाभितः ॥७९॥
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याचना की || ६९ ॥ 'दोनों कन्याएँ कच्छ महाकच्छको बहनें थीं, बड़ी ही शान्त और यौवनवती थीं; यशस्वी और सुनन्दा उनका नाम था। उन्हीं दोनों कन्याओंके साथ नाभिराजने भगवान्का विवाह कर दिया ॥७०॥ श्रेष्ठ गुणोंको धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेव विवाह कर रहे हैं इस हर्षसे देवोंने प्रसन्न होकर अनेक उत्तम उत्तम उत्सव किये थे ||७१ || महाराज नाभिराज अपने परिवार के लोगोंके साथ, दोनों पुत्रवधुओंको देखकर भारी सन्तुष्ट हुए सो ठीक ही है क्योंकि संसारीजनोंको विवाह आदि लौकिक धर्म ही प्रिय होता है || ७२ || भगवान् वृषभदेवके विवाहोत्सवमें मरुदेवी बहुत ही सन्तुष्ट हुई थी सो ठीक ही है, पुत्रके विवाहोत्सव में स्त्रियोंको अधिक प्रेम होता ही है ।। ७३ ।। जिस प्रकार चन्द्रमाको कलासे लहरोंकी मालासे भरी हुई समुद्रकी बेला बढ़ने लगती है उसी प्रकार भाग्योदय से प्राप्त होनेवाली पुत्रकी विवाहोत्सवरूप सम्पदा से मरुदेवी बढ़ने लगी थीं ||७४ || भगवान् के विवाहोत्सव में सभी लोग आनन्दको प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है। मनुष्य स्वयं ही भोगोंकी तृष्णा रखते हैं इसलिए वे स्वामीको भोग स्वीकार करते देखकर उन्हींका अनुसरण करने लगते हैं ||१५|| भगवान्का वह विवाहोत्सव केवल मनुष्यलोककी प्रीतिके लिए ही नहीं हुआ था, किन्तु उसने स्वर्गलोक में भी भारी प्रीतिको विस्तृत किया था ।। ७६ ।। भगवान् वृषभदेवकी दोनों महादेवियाँ उत्कृष्ट ऊरुओं, सुन्दर जंबाओं और कोमल चरण-कमलोंसे सहित थीं । यद्यपि उनका सुन्दर कटिभाग अधर अर्थात् नीचा था ( पक्ष में नाभि से नीचे रहनेवाला था ) तथापि उससे संयुक्त शरीर के द्वारा उन्होंने समस्त संसारको जीत लिया था ॥७७॥ वे दोनों ही देवियाँ अत्यन्त सुन्दर थीं, उनका उदर कृश था और उस कृश उदरपर वे जिस पतली रोम-राजिको धारण कर रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथीके मदकी अग्रधारा ही हो ||७|| वे देवियाँ जिस नाभिको धारण कर रही थीं वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कामरूपी रसकी कूपिका ही हो
१. कृशाङ्ग्यो । २. भगिन्यो । ३. स्वयंवरे । ४. सरस्वती अ०, स० । ५. एते अ०, प०, म०, ६०, ल० । ६. दारपरिग्रही भविष्यति । ७. विवाहिते । ८. बन्धुभि. । ९. लौकिकधर्म | १०. आनन्देन । ११. स्वभोगहितत्वेन । १२. भर्तुः । १३. लोकेऽनु- प० । १४. अनुवर्तते । अनो रुथ कामे दिवादिः । १५. भूयसीम् । १६. कन्ये । १७. शोभनजघनेन । १८. नाभेरधः कायोऽवर कायस्तेन । ध्वनौ नीचेनापि कायेन । १९. उत्तमे, उत्तमस्त्रियो । 'वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा वरवर्णिनी । इत्यभिधानात् । २० - राजों द०, स० । २१. मदप्रवाहम् । २२. श्रेष्ठाम् । २३. आलवालम् ।