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## Adipurana Then, he, smiling gently, walked on the jewel-studded earth, filling his parents with joy, his playful antics wondrous. || 166 || His childhood was like the moon's, a festival for the eyes of the world, a source of joy, radiant with art. || 167 || A gentle smile, like moonlight, graced his moon-like face, making his parents' ocean of joy swell. || 168 || His face, adorned with a charming smile, was like the first note of Saraswati's music, or Lakshmi's radiant laughter, or the blossoming of the vine of fame. || 169 || His beautiful lotus-like mouth gradually uttered indistinct words, as if Saraswati herself had come to imitate his childhood. || 170 || His feet, stumbling gently on the sapphire earth, shone like a gift of lotuses, illuminating the earth. || 171 || He played with the divine children in the dust of jewels, filling his parents' hearts with joy, his form a delight to behold. || 172 || He, like the moon, shone with the radiance of fame, bringing joy to the people with his delightful qualities. || 173 || His childhood passed, and then his youthful form, worshipped by the gods, became even more beautiful, a testament to his great strength. || 174 ||
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________________ आदिपुराणम् ततोऽसौ स्मितमातन्त्रन् संसर्पन्मणिभूमिषु । पित्रोर्मुदं ततानाचे वयस्यद्भुतचेष्टितः ॥ १६६ ॥ जगदानन्द नेत्राणामुत्सवप्रदमूर्जितम् । कलोज्ज्वलं तस्यासीत् शैशवं शशिनो यथा ॥ १६७॥ मुग्धरितमभूद्रस्य मुखेन्दौ चन्द्रिकामलम् । तेन पित्रोर्मनस्तोषजलधिर्ववृधेतराम् ॥ १६८ ॥ पीठबन्धः सरस्वत्या लक्ष्म्या हसितविभ्रमः । कीर्तिवल्ल्या विकासोऽस्य मुखे मुग्धस्मयोऽभवत् ॥ १६९ ॥ श्रीमन्मुखाम्बुजेऽस्यासीत् क्रमान्मम्मनभारती । सरस्वतीव 'तद्माल्य मनुकर्त्तुं तदाश्रिता' ॥ १७० ॥ स्खलत्पदं शनैरिन्द्रनीलभूमिपु संचरन् । स रेजे वसुधां ररब्जैरुपहरम्निव ॥ १७१ ॥ रत्नपांसुषु चिक्रीड स समं सुरदारकैः । पित्रोर्मनसि संतोष मातम्बललिताकृतिः॥१७३॥ प्रजानां दधदानन्वं गुणैराह्लादिमिर्मिजैः । कीर्तिज्योत्स्नापरीताङ्गः स बभौ बालचन्द्रमाः ॥१७३॥ बालावस्थामतोतस्य तस्याभूद् रुचिरं वपुः । 'कौमारं देवनाथानामर्चितस्य' महौजसः ॥१७४॥ ३२० तदनन्तर आश्चर्यकारक चेष्टाओंको धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेव अपनी पहली अवस्था ( शैशव अवस्था ) में कभी मन्द मन्द हँसते थे और कभी मणिमयी भूमिपर अच्छी तरह चलते थे, इस प्रकार वे माता-पिताका हर्ष बढ़ा रहे थे || १६६ || भगवानकी वह बाल्य अवस्था ठोक चन्द्रमाको बाल्य अवस्थाके समान थो, क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमाकी बाल्य 'अवस्था जगत्को आनन्द देनेवाली होती है उसी प्रकार भगवान् की बाल्य अवस्था भी जगत्को आनन्द देनेवाली थी, चन्द्रमाकी बाल्य अवस्था जिस प्रकार नेत्रोंको उत्कृष्ट आनन्द देनेवाली होती है उसी प्रकार उनकी बाल्यावस्था नेत्रोंको उत्कृष्ट आनन्द देनेवाली थी और चन्द्रमाकी बाल्यावस्था जिस प्रकार कला मात्र से उज्ज्वल होती है उसी प्रकार उनकी बाल्यावस्था भी अनेक कलाओं-विद्याओंसे उज्ज्वल थी || १६७ || भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमापर मन्द हास्यरूपी निर्मल चाँदनी प्रकट रहती थी और उससे माता-पिताका सन्तोषरूपी समुद्र अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त होता रहता था । १६८ ।। उस समय भगवान् के मुखपर जो मनोहर मन्द हास्य प्रकट हुआ था वह ऐसा जान पड़ता था मानो सरस्वतीका गीतबन्ध अर्थात् संगीतका प्रथम राग ही हो, अथवा लक्ष्मी के हास्यकी शोभा ही हो अथवा कीर्तिरूपी लताका विकास ही हो ॥ १६९ ॥ | भगवान के शोभायमान मुख-कमलमें क्रम-क्रमसे अस्पष्ट वाणी प्रकट हुई जो कि ऐसी मालूम होती थी मानो भगवान्की बाल्य अवस्थाका अनुकरण करनेके लिए सरस्वती देवो ही स्वयं आयी हों ॥ १७० ॥ इन्द्रनील मणियों की भूमिपर धीरे-धीरे गिरते-पड़ते पैरोंसे चलते हुए बालक भगवान् ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पृथिबीको ढाल कमलोंका उपहार ही दे रहे हों ।। १७१ ॥ सुन्दर आकारको धारण करनेवाले वे भगवान् माता-पिता के मनमें सन्तोषको बढ़ाते हुए देवबालकोंके साथ-साथ रत्नोंकी धूलिमें क्रीड़ा करते थे ।। १७२ ।। वे बाल भगवान् चन्द्रमाके समान शोभायमान होते थे, क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा अपने आह्लादकारी गुणोंसे प्रजाको आनन्द पहुँचाता है उसी प्रकार ने भी अपने आह्लादकारी गुणोंसे प्रजाको आनन्द पहुँचा रहे थे और चन्द्रमाका शरीर जिस प्रकार चाँदनीसे व्याप्त रहता है उसी प्रकार उनका शरीर भी कीर्तिरूपी चाँदनीसे व्याप्त था ।। १७३ ।। जब भगवान्‌की बाल्यावस्था व्यतीत हुई तब इद्रों द्वारा पूज्य और महाप्रतापी भगवान्‌का कौमार अवस्थाका शरीर बहुत ही सुन्दर १. गीत बन्धः प०, ६०, म०, ल० । अयं श्लोकः पुरुदेव चम्पूकाव्ये तत्कर्ता पञ्चमस्तबकस्य पञ्चत्रिशतितमश्लोकस्थाने स्वकीयग्रन्थाङ्गतां नोतः । २. दरहासः । ३. अव्यक्तवाक् । ४. कुमारस्य बाल्यम् । ५. तथाश्रिता अं०, स०, ६०, म० । यथाश्रिता प० । ६. उपहारं कुर्वन् । ७. रङ्गवलिरत्नधूलिषु । ८. कुमारसंबन्धि । ९. 'मत सदाधारे' इति षष्ठी । देवेन्द्रः पूजितस्य ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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