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298 The Adipurana, attracted by the celestial sphere, has taken a reverse course, as if embracing a crooked path. ||164|| The Bhagana, with its enhanced rays, submerged in water, served Pushana out of delusion, fearing the torrential rays. ||165|| The celestial wheel, a perishable light, revolving around the milky ocean, never stops for even a moment, fearing the transgression of time. ||166|| The luminous sheet, thus agitated by the bath water, for a moment, revolved obliquely, like a potter's wheel. ||167|| From the summit of the mountain, the sustainer of the world, the bath water, scattered sparsely, purified the human world. ||168|| The entire earth was irrigated, the Kula mountains purified, the lands made free from calamities, and all beings were united in welfare. ||169|| By this purification of the world's artery, what welfare remained for the beings that was not bestowed by the bath water? ||170|| Then, in that great flood, with its mind filled with meditation, and its face turned towards the directions, calm and having extinguished the heat of all the worlds, the remaining water... ||171|| ...in the caves of the great Meru, where the water had receded, Meru, with its water and forest, took some rest. ||172|| When fragrant incense was being burned in the fires of fragrant fuel, and jewel-like lamps were lit for the purpose of devotion alone... ||173|| ...when the gods were reciting auspicious hymns in loud voices, and the Kinnari goddesses, with their sweet voices, were singing melodious songs... ||174|| ...when the sounds of auspicious songs related to the welfare of the Jina were filling the ears of all the gods, making a festival for their hearing... ||175||
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________________ २९८ आदिपुराणम् ग्रहमण्डलमाकृष्टं 'पर्यस्तैः सलिलप्कनैः । विपर्यस्ता गतिं भेजे वक्रचारमिवाश्रितम् ॥१६४॥ भगणः प्रगुणीभूत किरणं जलविप्लुतम् । सिषेवे पूषणं मोहात् प्रालेयांशुविशङ्कया ॥६५॥ ज्योतिश्चक्रं क्षरज्ज्योतिः क्षीरपूरमनुभ्रमत् । वेलातिक्रममोत्येव नास्थादेकमपि क्षणम् ॥१६६॥ ज्योतिःपटलमित्यासीत् स्नानौपः क्षणमाकुलम् । कुलालचक्रमाविद्धमिव तिर्यक्परिभ्रमत्॥१६॥ पर्यापतन्द्रिसंगाद् गिरेः स्वलोकधारिणः । विरलैः स्नानपूरस्तैर्नृलोकः पावनीकृतः ॥१६॥ निर्वापिता मही कृत्स्ना कुलशैलाः पवित्रिताः । कृता निरीतयो देशाः प्रनाः क्षेमेण योजिताः ॥१६९॥ कृरस्नामिति जगन्नाडी पवित्रीकुर्वतामुना । किं नाम स्नानपूरेण श्रेयः शेषितमङ्गिनाम् ॥१७०॥ अथ तस्मिन् महापूरे ध्यानापूरितदिङमुखे । प्रशान्ते शमिताशेषभुवनोष्मण्य शेषत: ॥१७॥ *रेचितेषु महामेरोः कन्दरेषु जलप्लवैः । प्रत्याश्वास मिवायाते मेरौ "सवनकानने ॥१७२॥ धूपेषु दह्यमानेषु सुगन्धीन्धनयोनिषु । ज्वलरसु मणिदीपेषु "मतिमानोपयोगिषु ॥१७३॥ "पुण्यपाठान पठत्सूच्चैः संपाउं“सुरवन्दिपु । गायन्तीषु सुकण्ठीषु किन्नरीषु कलस्वनम् ॥१७॥ जिनकल्याणसंबन्धि" मङ्गलोद्दीतिनिस्स्वनैः । कुर्वाणे विश्वगीर्वाण लोकस्य श्रवणोत्सवम् ॥१७५॥ वह अब भी वक्रगतिका आश्रय लिये हुए है ।।१६४|| उस समय जलमें डूबे हुए तथा सीधी और शान्त किरणोंसे युक्त सूर्यको भ्रान्तिसे चन्द्रमा समझकर तारागण भी उसकी सेवा करने लगे थे ॥१६५।। सम्पूर्ण ज्योतिश्चक्र जलप्रवाहमें डूबकर कान्तिरहित हो गया था और उस लप्रवाहके पीछे-पीछे चलने लगा था मानो अवसर चूक जानेके भयसे एक क्षण भी नहीं ठहर सका हो ॥१६६।। इस प्रकार स्नानजलके प्रवाहसे व्याकुल हुआ ज्योतिष्पटल क्षण-भरके लिए, घुमाये हुए कुम्हारके चक्रके समान तिरछा चलने लगा था ॥१६७। स्वर्गलोकको धारण करनेवाले मेरु पर्वतके मध्य भागसे सब ओर पड़ते हुए भगवान्के स्नानजलने जहाँ-तहाँ फैलकर समस्त मनुष्यलोकको पवित्र कर दिया था ॥१६८।। उस जलप्रवाहने समस्त पृथिवी सन्तुष्ट (सुखरूप) कर दी थी, सब कुलाचल पवित्र कर दिये थे, सब देश अतिवृष्टि आदि ईतियोंसे रहित कर दिये थे, और समस्त प्रजा कल्याणसे युक्त कर दी थी। इस प्रकार समस्त लोकनाडीको पवित्र करते हुए उस अभिषेकजलके प्रवाहने प्राणियोंका ऐसा कौन-सा कल्याण बाकी रख छोड़ा था जिसे उसने न किया हो ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥१६९-१७०॥ अथानन्तर अपने 'छलछल' शब्दोंसे समस्त दिशाओंको भरनेवाला, तथा समस्त लोक की उष्णता शान्त करनेवाला वह जलका बड़ा भारी प्रवाह जब बिलकुल ही शान्त हो गया ॥१७१।। जब मेरु पर्वतकी गुफाएँ जलसे रिक्त (खाली) हो गयीं, जल और वनसहित मेरु पर्वतने कुछ विश्राम लिया ॥१७२।। जब सुगन्धित लकड़ियोंकी अग्निमें अनेक प्रकारके धूप जलाये जाने लगे और मात्र भक्ति प्रकट करनेके लिए मणिमय दीपक प्रज्वलित वि गये ॥१७३।। जब देवोंके बन्दोजन अच्छी तरह उच्च स्वरसे पुण्य बढ़ानेवाले अनेक स्तोत्र पढ़ रहे थे, मनोहर आवाजवाली किन्नरी देवियाँ मधुर शब्द करती हुई गीत गा रही थीं १७४।। जब जिनेन्द्र भगवान के कल्याणकसम्बन्धी मंगल गानेके शब्द समस्त देव लोगोंके कानोंका उत्सव १. परितः क्षिप्तः । २. विप्रकीर्णाम् । ३.वक्रगमनम् । ४.नक्षत्रसमूहः । ५.ऋजुभूतफरम् । ६. धौतम् । ७. सूर्यम् । ८. चन्द्रः। ९. स्नानजलप्रवाहैः। १०.-परिभ्रमम् । ११. उष्मे । १२. परित्यक्तेषु । १३. सजलवने । १४. जिनदेहदीप्तः सकाशात् निजदीप्तेर्व्यर्थत्वात् । १५. प्रशस्यगद्य-पद्यादिमङ्गलान् । १६. सम्यक्पाठं यथा भवति तथा । १७. मङ्गलगीत । १८. जनस्य ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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