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________________ २८० आदिपुराणम् महासत्वेन तेनासौ गर्मस्थेन पर श्रियम् । बमार रत्नगर्भव भूमिराकरगोचरा ॥२५९॥ स मातुरुदरस्थोऽपि नास्याः पीडामजीजनत् । दर्पणस्थोऽपि किं वह्निदहेत्तं प्रतिबिम्बित: ॥२६०॥ त्रिवलीमङ्गुरं तस्यास्तथैवास्थात्तनूदरम् । तथापि ववृधे गर्भस्तेजसः प्रामवं हि तत् ॥२६१॥ नोदरे विकृतिः कापि स्तनौ न नीलचकौ । न पाण्डुवदनं तस्या गर्भोऽप्यवृधदद्भुतम् ॥२६२॥ स्वामोदं मुखमेतस्याः राजाघ्रायैव सोऽतृपत् । मदालिरिव पग्रिन्याः पन्नमस्पष्टकेसरम् ॥२६३॥ सोऽमाद् विशुद्धगर्मस्थस्त्रिबोधविमलाशयः । स्फटिकागारमध्यस्थः प्रदीप इव निश्चलः ॥२६॥ कुशेशयशयं देवं सा दधानोदरेशयम् । कुशेशयशयेवासीन्माननीया दिवौकसाम् ॥२६५॥ निगूढं च शची देवी सिषेवे किल साप्सराः। मघोनाधविधाताय 'प्रहिता तां महासतीम् ॥२६॥ ---सानसीम परं कंचित् नम्यते स्म स्वयं जनैः । चान्द्री कलेव रुन्द्रश्रीदेवीव च सरस्वती ॥२६॥ बहुनात्र किमुक्तेन श्लाघ्या सैका जगस्त्रये । या "स्रष्टुर्जगतां स्रष्ट्री बभूव भुवनाम्बिका ॥२६८॥ दीपकविशेषसे जानी हुई खजानेकी मध्यभूमिके समान सुशोभित हो रही थी ।।२५८॥ जिसके भीतर अनेक रत्न भरे हुए हैं ऐसी रत्नोंको खानिकी भूमि जिस प्रकार अतिशय शोभाको धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी भी गर्भ में स्थित महाबलशाली पुत्रसे अतिशय शोभा धारण कर रही थी ।।२५९।। वे भगवान् ऋषभदेव माताके उदर में स्थित होकर भी उसे किसी प्रकारका कष्ट उत्पन्न नहीं करते थे सोठीक ही है दर्पणमें प्रतिविम्बित हुई अग्नि क्या कभी दर्पणको जला सकती है ? अर्थात् नहीं जला सकती ॥२६०॥ यद्यपि माता मरुदेवीका कृश उदर पहलेके समान ही त्रिवलियोंसे सुशोभित बना रहा तथापि गर्भ वृद्धिको प्राप्त होता गया सो यह भगवानके तेजका प्रभाव ही था ॥२६१।। न तो माताके उदर में कोई विकार हुआ था, न उसके स्तनोंके अग्रभाग ही काले हुए थे और न उसका मुख ही सफेद हुआ था फिर भी गर्भ बढ़ता जाता था यह एक आश्चर्यकी बात थी ॥२६२॥ जिस प्रकार मदोन्मत्त भ्रमर कमलिनीके केसरको बिना छुए ही उसकी सुगन्ध मात्रसे सन्तुष्ट हो जाता है उसी प्रकार उस समय महाराज नाभिराज भी मरुदेवीके सुगन्धियुक्त मुखको सूंघकर ही सन्तुष्ट हो जाते थे ।।२६३।। मरुदेवीके निर्मल गर्भ में स्थित तथा मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानोंसे विशुद्ध अन्तःकरणको धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे जैसा कि स्फटिक मणिके बने हुए.घरके बीचमें रखा हुआ निश्चल - दीपक सुशोभित होता है ॥२६४॥ अनेक देव-देवियाँ जिसका सत्कार कर रही हैं और जो अपने उदरमें नाभि-कमलके ऊपर भगवान् वृषभदेवको धारण कर रही है ऐसी वह मरुदेवी साक्षात् लक्ष्मीके समान शोभायमान हो रही थी ।।२६५।। अपने समस्त पापोंका नाश करनेके लिए इन्द्रके द्वारा भेजी हई इन्द्राणी भी अप्सराओंके साथसाथ गुप्तरूपसे महासती मरुदेवीकी सेवा किया करती थी ।।२६६॥ जिस प्रकार अतिशय शोभायमान चन्द्रमाकी कला और सरस्वती देवो किसीको नमस्कार नहीं करती किन्तु सब लोग उन्हें ही नमस्कार करते हैं इसी प्रकार वह मरुदेवी भी किसीको नमस्कार नहीं करती थी,किन्तु संसारके अन्य समस्त लोग स्वयं उसे ही नमस्कार करते थे ॥२६७। इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन है ? इतना कहना ही बस है कि तीनों लोकोंमें वही एक प्रशंसनीय थी। वह जगत्के स्रष्टा अर्थात् भोगभूमिके बाद कर्मभूमिकी व्यवस्था करनेवाले श्रीवृषभदेवकी धम । २. आदिब्रह्माणम। ३. उदरे शेते इति उदरेशयस्तम् । जठरस्थमिति यावत । ४. लक्ष्मीः । ५. पूज्या । ६. इन्द्रेण । ७. -विनाशाय म०, ल.। ८. प्रेषिता । ९. नमन्ति स्म । १०. अन्य किमपि । ११. जनयितुः । १२. जनयित्री।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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