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278 Adipuranam, what is deep in your body, O Kamb? How long are the arms of King Dorlamb? What should you enter, and how are you praiseworthy, O Sati? ||249|| [Naabhirajaanugaadhik, an example of Bahiralapik Anta Visham Prashnottar] O Devi, to entertain you, these celestial women have come from the celestial realm. They are dancing in the sky, using various karanas (dance forms). ||250|| O Mother, look at the delicious dance in that play, and look at the group of apsaras brought by the gods and gathered in the sky. [This is a Gomutrika-bound verse.] ||251|| O Tanvi! Your courtyard is shining with the rain of jewels. It seems to be holding a great treasure. ||252|| ...[Gomutrika]
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________________ २७८ आदिपुराणम् स्वत्तनौ काम्ब गम्भीरा राजो दोर्लम्ब माकुतः । कोर किं नु विगाढव्यं त्वं च श्लाघ्या कथं सती ॥२४९॥ ['नामिराजानुगाधिकम् ' बहिरालापकमन्तविषमं प्रश्नोत्तरम् ] स्वां विनोदयितुं देवि प्राप्ता नाकालयादिमाः । मृत्यन्ति करणेधिनमोरङ्गे सुराङ्गनाः ॥२५०॥ खमम्ब रेचितं पश्य नाटके सुरसान्वितम् । स्वमम्बरे चितं वैश्य पेटकं"सुरसारितम् ॥२५॥ ...[ गोमूत्रिका ] वसुधा राजते तन्वि परितस्त्वद्गृहाङ्गणम् । वसुधारानिपातेन दधतीव महानिधिम् ॥२५२॥ प्रश्नोंके उत्तर में माताने श्लोकका चौथा चरण कहा 'नानागार-विराजितः'। इस एक चरणसे ही पहले कहे हुए सभी प्रश्नोंका उत्तर हो जाता है । जैसे, ना अनागाः, रविः, आजितः, नानागारविराजितः अर्थात् अपराधरहित मनुष्य राजाओंके द्वारा दण्डनीय नहीं होता, शमें रवि (सूये) शोभायमान होता है, डर आजि (यद्ध) से लगता है और मेरा निवासस्थान अनेक घरोंसे विराजमान है। [यह आदि विषम अन्तरालापक श्लोक कहलाता है ] ॥२४८।। किसी देवीने फिर पूछा कि हे माता ! तुम्हारे शरीरमें गम्भीर क्या है ? राजा नाभिराजकी भुजाएँ कहाँतक लम्बी हैं ? कैसी और किस वस्तुमें अवगाहन (प्रवेश) करना चाहिए ? और हे पतिव्रते, तुम अधिक प्रशंसनीय किस प्रकार हो ? माताने उत्तर दिया 'नाभिराजानुगाधिक' (नाभिः, आजानु, गाधि-कं, नाभिराजानुगा-अधिक)। श्लोकके इस एक चरणमें ही सब प्रश्नोंका उत्तर आ गया है जैसे, हमारे शरीरमें गम्भीर (गहरी) नाभि है, महाराज नाभिराजकी भुजाएँ आजानु अर्थात् घुटनों तक लम्बी हैं, गाधि अर्थात् कम गहरे के अर्थात् जलमें अवगाहन करना चाहिए और मैं नाभिराजकी अनुगामिनी (आज्ञाकारिणी) होनेसे अधिक प्रशंसनीय हूँ। [यहाँ प्रश्नोंका उत्तर श्लोकमें न आये हुए बाहर के शब्दोंसे दिया गया है इसलिए यह बहिर्लापक अन्त विषम प्रश्नोत्तर है]॥२४९।। [इस प्रकार उन देवियोंने अनेक प्रकारके प्रश्न कर मातासे उन सबका योग्य उत्तर प्राप्त किया। अब वे चित्रबद्ध श्लोकों द्वारा माताका मनोरंजन करती हुई बोली] हे देवि, देखो, आपको प्रसन्न करनेके लिए स्वर्गलोकसे आयी हुई ये देवियाँ आकाशरूपी रंगभूमिमें अनेक प्रकारके करणों (नृत्यविशेष)के द्वारा नृत्य कर रही हैं ।२५०।। हे माता, उस नाटकमें होनेवाले रसीले नृत्यको देखिए तथा देवोंके द्वारा लाया हुआ और आकाशमें एक जगह इकट्ठा हुआ यह अप्सराओंका समूह भी देखिए। [यह गोमूत्रिकाबद्ध श्लोक है।] ॥२५१॥ हे तन्वि! रत्नोंकी वर्षासे आपके घरके आँगनके चारों १. बाहुलम्बः । २. कुतः आ सीमार्थे आङ् । कस्मात् पर्यन्त इत्यर्थः । ३. प्रवेष्टव्यम् । प्रगाढव्यम् द० । ४. पतिव्रता । सति म०, ल०। ५. नाभिः आजानु ऊरुपर्वपर्यन्तमिति यावत् । गाधिकं गाधिः तलस्पर्शिप्रदेशः अस्यास्तीति गाधि । गाधि च तत कं जलं गाधिकं । 'कर्मणः सलिलं पयः' इत्यभिधानात् । जानुदघ्न नाभिदघ्नानुजलाशयः । अधिकं नाभिराजानुवर्तिनी चेत् । ६. अङ्गकरन्यासः । ७. बल्गितम् । ८. आत्मीयम् । ९. निचितम् । १०. वैश्यानां सम्बन्धि समूहम् । ११. देवः प्रापितम् । थि चि / त्वमम्ब रेचितं पश्य नाटके सुरसान्वितम् । स्वमम्बरे चितं वैश्यपेटकं सुरसारितम ।।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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