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270 The moon-like face has surely conquered the lotus, for it is always shrinking. The moon itself cannot bear the defeat of the lotus, and it too shrinks, being like the lotus. 21 The lotus, adorned with pollen, is conquered by your face, which is like a sal tree. It shrinks again and again. 21 The bee, mistaking your face for a lotus, keeps coming back to it, and, fearing the death that awaits it from the shrinking lotus, never goes near it again. 20 The bee, having found satisfaction in smelling your face, which is like a lotus, never goes near another lotus that grows on earth. 218 This one is not lustful, nor does he desire anything else. He is always devoted to you. Who is he? 219 [Riddle] - What is it that is red, dear to King Nabhiraj, not lustful, not low, and always radiant? 20 [Answer] - Your lower lip. 214 [Explanation] - Your lower lip is red, dear to King Nabhiraj, not lustful, not low because it is on the upper part of the body, and always radiant. 219 [Another Riddle] - What is the fine line on your body, and what is another name for the elephant? 20 [Answer] - The fine line is your eyebrow, and another name for the elephant is "Hasti". 214
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________________ २७० आदिपुराणम् मुखेन्दुना जितं नूनं तवाज सोनुमक्षमम् । बिम्बमप्पैन्दवं साम्पात् संकोचं यात्यदोऽनिशम् ॥१५॥ राजीवमलिमिर्जुष्टं सालकेन मुखेन ते । जितं मोल्तयावापि याति सांकोचनं मुहुः ॥२१॥ माजिउन्मुहुरम्मेत्य स्वम्मुलं कमलास्थया । नाम्पब्जिनी समभ्यति सशक इव षट्पदः ॥२०॥ नामि पार्थिवमन्वेति नलिनं नलिनानने । स्वन्मुसान्जमुपात्राय कृतार्थोऽयं मधुव्रत: ॥२१८॥ नामेरमिमतो राजस्वविरको न कामुकः । न कुतोऽप्यपर'काम्स्या यः सदोजोपरः स कः ॥२१९॥ [प्रहेलिका] - कोरकशास्यते रेला तवाणुभ्र सुविभ्रमे । करिणी च वदाम्येन पर्यायेण करेणुज ॥२०॥ [एकाळापकम् ] है ।२१४॥ हे माता, आपके मुखरूपी चन्द्रमाके द्वारा यह कमल अवश्य ही जीता गया है क्योंकि इसीलिए वह सदा संकुचित होता रहता है । कमलकी इस पराजयको चन्द्रमण्डल भी नहीं सह सका है और न आपके मुखको ही जीत सका है इसलिए कमलके समान होनेसे वह भी सदा संकोचको प्राप्त होता रहता है ।।२१५।। हे माता, चूर्ण कुन्तलसहित आपके मुखकमलने भ्रमरसहित कमलको अवश्य ही जीत लिया है इसीलिए तो वह भयसे मानो आज तक बारबार संकोचको प्राप्त होता रहता है ।।२१६।। हे माता, ये भ्रमर तुम्हारे मुखको कमल समझ बार-बार सम्मुख आकर इसे सूंघते हैं और संकुचित होनेवाली कमलिनीसे अपने मरने आदिकी शंका करते हुए फिर कभी उसके सम्मुख नहीं जाते हैं। भावार्थ-आपका मुख-कमल सदा प्रफुल्लित रहता है और कमलिनीका कमल रातके समय निमीलित हो जाता है। कमलके निमीलित होनेसे भ्रमरको हमेशा उसमें बन्द होकर मरनेका भय बना रहता है। आज उस भ्रमरको सुगन्ध ग्रहण करनेके लिए. सदा प्रफुल्लित रहनेवाला आपका मुख कमलरूपी निर्बाध स्थान मिल गया है इसलिए अब वह लौटकर कमलिनीके पास नहीं जाता है ।।२१७॥ हे कमलनयनी ! ये भ्रमर आपके मुखरूपी कमलको सूंघकर ही कृतार्थ हो जाते हैं इसीलिए वे फिर पृथ्वीसे उत्पन्न हुए अन्य कमलके पास नहीं जाते अथवा ये भ्रमर आपके मुखरूपी कमलको सूंघकर कृतार्थ होते हुए महाराज नाभिराजका ही अनुकरण करते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार आपका मुख सूंघकर आपके पति महाराज नाभिराज सन्तुष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार ये भ्रमर भी आपका मुख सूंघकर सन्तुष्ट हो जाते हैं ।।२१८॥ तदनन्तर वे देवियाँ मातासे पहेलियाँ पूछने लगीं। एकने पूछा कि हे माता, बताइए वह कौन पदार्थ है ? जो कि आपमें रक्त अर्थात् आसक्त है और आसक्त होनेपर भी महाराज नाभिराजको अत्यन्त प्रिय है, कामी भी नहीं है, नीच भी नहीं है, और कान्तिसे सदा तेजस्वी रहता है। इसके उत्तर में माताने कहा कि मेरा 'अधर'(नीचेका ओठ)ही है क्योंकि वह रक्त अर्थात् लाल वर्णका है, महाराज नाभिराजको प्रिय है, कामी भी नहीं है, शरीरके उच्च भागपर रहनेके कारण नीच भी नहीं है और कान्तिसे सदा तेजस्वी रहता है * ॥२१९।। किसी दूसरी देवीने पूछा कि हे पतली भौंहोंवालो और सुन्दर विलासोंसे युक्त माता, बताइए आपके शरीरके किस स्थानमें कैसी रेखा अच्छी समझी जाती है और हस्तिनीका दूसरा नाम क्या है ? दोनों प्रश्नोंका एक ही उत्तर दीजिए। १. अत्यर्थम् । २. कमलं चन्द्रश्च । ३. चन्द्रसादृश्यात अब्जसादश्याच्च । ४. अब्जम इन्दबिम्बं प। ५. चूर्णकुन्तलसहितेन । ६. सङ्कोचनं ल०, ५०, म०, स०, ८०। साङ्कोचनं सङ्कोचित्वम् । राजीवं भीरुतया अद्यापि साङ्कोचीनं यातीत्यर्थः । ७. कमलबुदया। ८. अन्जिन्याः अभिमुखम् । ९. पृथिव्यां भवं नाभिराजंच। १०. स्वन्मुखाम्बुजमाघ्राय अ०, ५०, ल०। ११. नीचः। १२. सततं तंजोधरः ! सामर्थ्याल्लभ्योऽपरः। १३. करिणो हस्ते सूक्ष्मरेखा च ।। इस श्लोकमें अधर शब्द आया है इसलिए इसे 'अन्तापिका' भी कह सकते हैं ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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