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264 He will descend from heaven after seeing the celestial chariots. He will be endowed with the eyes of knowledge after seeing the abode of the serpent king. ||159|| He will be the mine of virtues after seeing the heap of shining jewels, and he will be the burner of the fuel of karma after seeing the smokeless fire. ||160|| The fruit of the bull that has entered your mouth is that Lord Vrishabhadeva will take his form in your pure womb. ||161|| Hearing these words of Nabhiraja, her whole body trembled with joy, as if it were filled with the sprouts of joy, being overwhelmed with supreme bliss. ||162|| From that time onwards, by the command of Indra, the Dikkumari goddesses served Marudevi like maidservants, performing the duties appropriate to that time. ||163||
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________________ २६४ आदिपुराणम् स्वर्विमानावलोकन स्वर्गादवतरिष्यति । फणीन्द्रमवनालोकात् सोऽवधिज्ञानलोचनः ॥१५९।। गुणानामाकरः प्रोधनराशिनिशामनात् । कमेंन्धन धगप्येष निर्धूमज्वलनेक्षणात् ॥१६०॥ वृषभाकारमादाय भवत्यास्यप्रवेशनात् । स्वद्गमें वृषभो देवः स्वमाधास्यति निर्मले ॥१६॥ इति तद्वचनाद् देवी दधे रोमाञ्चितं वपुः । हर्षारैरिवाकीर्ण परमानन्दनि रम् ॥१६२।। तदाप्रभृति सुत्रामशासनात्ताः सिषेविरे । दिक्कुमार्योऽनुचारिण्यः' तत्कालोचितकर्मभिः ॥१६३। को प्राप्त करेगा ॥ १५८ ॥ देवोंका विमान देखनेसे वह स्वर्गसे अवतीर्ण होगा, नागेन्द्रका भवन देखनेसे अवधि-ज्ञान रूपी लोचनोंसे सहित होगा ।। १५९ ॥ चमकते हुए रत्नोंकी राशि देखनेसे गुणोंकी खान होगा, और निर्धूम अग्निके देखनेसे कर्मरूपी इन्धनको जलानेवाला होगा ।। १६० ।। तथा तुम्हारे मुखमें जो वृषभने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भमें भगवान् वृषभदेव अपना शरीर धारण करेंगे ॥ १६१ ॥ इस प्रकार नाभिराजके वचन सुनकर उसका सारा शरीर हर्षसे रोमांचित हो गया जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो परम आनन्दसे निर्भर होकर हर्षके अंकुरोंसे ही व्याप्त हो गया हो ।। १६२ ॥ [*जब अवसर्पिणी कालके तीसरे सुषमदुःषम नामक कालमें चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष बाकी रह गया था तब आषाढ़ कृष्ण द्वितीयाके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वननाभि अहमिन्द्र, देवायुका अन्त होनेपर सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्युत होकर मरुदेवीके गर्भ में अवतीर्ण हुआ और वहाँ सीपके सम्पुटमें मोतीकी तरह सब बाधाओंसे निर्मुक्त होकर स्थित हो गया ॥१-३॥ उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहाँ होनेवाले चिह्नोंसे भगवानके गर्भावतारका समय जानकर वहाँ आये और सभीने नगरकी प्रदक्षिणा देकर भगवान के माता-पिताको नमस्कार किया ॥४॥ सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने देवोंके साथ-साथ संगीत प्रारम्भ किया। उस समय कहीं गीत हो रहे थे, कहीं बाजे बज रहे थे और कहीं मनोहर नृत्य हो रहे थे ।।५।। नाभिराजके महलका आँगन स्वर्गलोकसे आये हुए देवोंके द्वारा खचाखच भर गया था। इस प्रकार गर्भकल्याणकका उत्सव कर वे देव अपने-अपने स्थानोंपर वापस चले गये ॥६॥ ] उसी समयसे लेकर इन्द्रकी आज्ञासे दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य का के द्वारा दासियोंके समान मरुदेवीकी सेवा करने लगीं ।।१६३।। १. दर्शनात् । २. कर्मेन्धनहरोऽप्येष अ०, ५० । ३. कर्मेन्धनदाही। ४. भवत्यास्य तव मुख । ५. स्वम् आत्मानम् । ६. धारयिष्यति । ७. दधे प०। ८. १६२श्लोकादनन्तरम् अ०, १०, स०, द०, म०,ल. पुस्तकेष्वधस्तनः पाठोऽधिको दृश्यते । अयं पाठः 'त० ब०' पुस्तकयो स्ति। प्रायेणान्येष्वपि कर्णाटकपुस्तकेषु नास्त्ययं पाठः। कर्णाटकपुस्तकेष्वज्ञान केनचित् कारणेन त्रुटितोऽप्ययं पाठः प्रकरणसंगत्यर्थमावश्यकः प्रतिभाति । स च पाठ ईदृशः-एष श्लोको हरिवंशपुराणस्याश्रष्टमसगै सप्तनवतितमः श्लोको वर्तते । तृतीयकालशेषेऽसावशीतिश्चतुरुत्तरा। पूर्वलक्षास्त्रिवर्गाष्टमासपक्षयुतास्तदा ॥११॥ अवतीर्य युगाद्यन्ते ह्यखिलार्थविमानतः । आषाढासितपक्षस्य द्वितीयायां सुरोत्तमः ॥२॥ उत्तरापादनक्षत्रे देव्या गर्भसमाश्रितः । स्थितो यथा विबाधोऽसौ मौक्तिकं शुक्तिसम्पुटे ॥३॥ ज्ञात्वा तदा स्वचिह्नन सर्वेऽप्यागुः सुरेश्वराः । पुरुं प्रदक्षिणीकृत्य तद्गुरूंश्च ववन्दिरे ।।४।। संगीतकं समारब्धं वज्रिणा हि सहामरैः। क्वचिद्गीतं क्वचिद्वाद्यं क्वचिन्नत्यं मनोहरम् ॥५॥ तत्प्राङ्गणं समाक्रान्तं नाकलोकरिहागतः। कृत्वागर्भककल्याणं पुनर्जग्मुर्यथायथम् ॥६॥ अयं पाठः 'प' पुस्तकस्थः । 'द' पुस्तके द्वितीयश्लोकस्य 'युगाद्यन्ते' इत्यस्य स्थाने 'सुरायन्ते' इति पाठो विद्यते तस्य सिद्धिश्च संस्कृतटीकाकारेण शकन्ध्वादित्वात् पररूपं विधाय विहिता। 'ब०, स०' पुस्तकयोनिम्नाङ्कितः पाठोऽस्ति प्रथमद्वितीयश्लोकस्थाने-'पूर्वलक्षेषु कालेऽसौ शेपे चतुरशीतिके। तृतीये हि त्रिवर्षाष्टमासपक्षयते सति ॥१॥ आयुरन्ते ततश्च्युत्वा ह्यखिलार्थविमानतः । आषाहासितपक्षस्य द्वितीयायां सुरोत्तमः ॥२॥) ९ चेटयः । कोष्ठकके भीतरका पाठ अ०, ५०, द०, स०, म. और ल० प्रतिके आधारपर दिया है। कर्णाटककी 'त.''ब' तथा 'ट' प्रतिमें यह पाठ नहीं पाया जाता है।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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