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________________ द्वादशं पर्व २५३ शिरीषसुकुमाराङ्गास्तस्या बाहू विरेजतुः । कल्पवल्या इवावामी विटपौ मणिभूषणौ ॥३८॥ मृदुबाहुलते तस्याः करपल्लवसंश्रिताम् । नखांशूलसितम्याजाद् दधतुः पुष्पमारीम् ॥३९॥ अशोकपल्लवच्छायं विभ्रती करपल्लवम् । पाणौ कृतमिवाशेष मनोरागमुवाह सा ॥४०॥ सा दधे किमपि सस्तावंसो हंसीव पक्षती। भाखस्तकबरीमार वाहिकाखेदिताविव ॥४१॥ मुखमस्याः सरोजाक्ष्या जहास शशिमण्डलम् । सकलं विकलईच विकलं सकलङ्ककम् ॥४२॥ वैषम्य दूषितेन्दुश्रीरम्जश्रीः पदूषिता । तस्याः सदोज्ज्वलास्यश्रीवंद केनोपमीयते ॥४३॥ दशनच्छदरागोऽस्याः स्मितांशुमिरनुद्रुतः । पयःकणावकीर्णस्य विद्रुमस्याजय'च्छ्यिम् ॥४४॥ सुकण्याः कण्ठरागोऽस्या गीतगोष्ठीषु पप्रथे । मौरिव इवाकृष्टधनुषः पुष्पधन्वनः ॥४५॥ कपोलावलकानस्या दधतुः प्रतिविम्बितान् । शुदिमाजोऽनुगृहन्ति मलिनानपि संश्रितान् ॥४६॥ तस्या नासाग्रमभ्यग्रं"वमौ मुखममिस्थितम् । तदामोदमिवाघ्रातुं ततिःश्वसितमुस्थितम् ॥४७॥ नयनोत्पलयोः कान्तिस्तस्याः "कर्णान्तमाश्रयत् । कर्णेजपस्वमन्योऽन्यस्पर्धयेव चिकीर्षतोः ॥४८॥ पहाड़ी नदीके जलका प्रवाह पड़ रहा हो ॥ ३७॥ शिरीषके फूलके समान अतिशय कोमल अंगोंवाली उस मरुदेवीकी मणियोंके आभूषणोंसे सुशोभित दोनों भुजाएँ ऐसी भली जान पड़ती थीं मानो मणियोंके आभूषणोंसे सहित कल्पवृक्षको दो मुख्य शाखाएँ ही हों॥३८॥ उसकी दोनों कोमल भुजाएँ लताओंके समान थीं और वे नखोंकी शोभायमान किरणोंके बहाने हस्तरूपी पल्लवोंके पास लगी हुई पुष्पमंजरियाँ धारण कर रही थीं ॥३९॥ अशोक वृक्षके किसलयके समान लाल-लाल हस्तरूपी पल्लवोंको धारण करती हुई वह महदेवी ऐसी जान पड़ती थी मानो हाथों में इकट्ठे हुए अपने मनके समस्त अनुरागको ही धारण कर रही हो ॥ ४० ॥जिस प्रकार हंसिनी कुछ नीचेकी ओर ढले हुए पंखोंके मूल भागको धारण करती है उसी प्रकार वह मरदेवी कुछ नीचेकी ओर झुके हुए दोनों कन्धोंको धारण कर रही थी, उसके वे झुके हुए कन्धे ऐसे मालूम होते थे मानो लटकते हुए केशोंका भार धारण करनेके कारण खेद-खिन्न होकर ही नीचेकी ओर झुक गये हों ॥४१॥ उस कमलनयनीका मुख चन्द्रमण्डलकी हँसी उड़ा रहा था क्योंकि उसका मुख सदा कलाओंसे सहित रहता था और चन्द्रमाका मण्डल एक पूर्णिमाको छोड़कर बाकी दिनों में कलाओंसे रहित होने लगता है, उसका मुख कलंकरहित था और चन्द्रमण्डल कलंकसे सहित था ॥४२॥ चन्द्रमाकी शोभा दिनमें चन्द्रमाके नष्ट हो जानेके कारण वैधव्य दोषसे दूषित हो जाती है और कमलिनीकी चड़से दूषित रहती है इसलिए सदा उज्ज्वल रहनेवाले उसके मुखकी शोभाकी तुलना किस पदार्थसे की जाये ? तुम्ही कहो ॥ ४३ ।। उसके मन्दहास्यकी किरणोंसे सहित दोनों ओठोंकी लाली जलके कणोंसे व्याप्त मूंगाकी भी शोभा जीत रही थी॥४४॥ उत्तम कण्ठवाली उस मरुदेवीके कण्ठका राग (स्वर) संगीतकी गोष्ठियोंमें ऐसाप्रसिद्ध था मानो कामदेवके खींचे हुए धनुषकी डोरीका शब्द ही हो।।४५।। उसके दोनों ही कपोल अपनेमें प्रतिबिम्बित हुए काले केशोंको धारण कर रहे थे सो ठीक ही है शुद्धिको प्राप्त हुए पदार्थ शरणमें आये हुए मलिन पदार्थोंपर भी अनुग्रह करते हैं-उन्हें स्वीकार करते हैं ।।४६।। लम्बा और मुखके सम्मुख स्थित हुआ उसकी नासिकाका अग्रभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उसके श्वासकी सुगन्धिको सूंघनेके लिए ही उद्यत हो। ४७ ।। उसके नयन-कमलोंकी कान्ति कानके समीप तक पहुँच गयी थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो दोनों ही नयन-कमल परस्परकी स्पर्धासे एक दूसरेकी चुगली करना १. आनती। इवावग्रो ल०। २. शाखे । ३. ईषन्नतो। ४. पक्षमूले । 'स्त्री पक्षतिः पक्षमूलम्' इत्यभिधानात् । ५. वाहनम् । ६. सम्पूर्णम् । ७. विधवात्व विधुत्व वा। ८. अनुगतः। ९.-जयत् श्रियम् अ०, स०, म०, ल०।१०. स्थिरम् । ११. कर्णसमीपम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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