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________________ दशमं पर्व २२५ द्वे सहस्र तथैकाग्रा सप्ततिश्च समुच्चिताः । सर्वा देव्योऽस्य याः स्मृत्वा याति चेतोऽस्य निर्वृति तासां मृदुकरस्पशैस्तदद्वक्त्रान्जनिरीक्षणः । स लेभेऽभ्यधिको तृप्तिं संभोगैरपि मानसैः ॥१९६॥ षट्चतुष्कं सहस्राणि नियुतानि दशैव च । विकरोत्येकशो देवी दिव्यरूपाणि योषिताम् ॥१९७॥ चमूनां सप्तकक्षाः स्युराचात्रायुतयोर्द्वयम् । द्विद्धिः शेषनिकायेषु महाब्धेरिव वीचयः ॥१९॥ हस्त्यश्वरथपादातवृषगन्धर्वनर्तकी । सप्तानीकान्युशन्स्यस्य प्रत्येकं च महत्तरम् ।।१९९॥ एकैकस्याश्च देव्याः स्यादप्सर परिषस्त्रयम् । पन्चवर्गश्च पन्चाशच्छतं चैव यथाक्रमम् ॥२०॥ इत्युक्तपरिवारेण साईमच्युतकरुपजाम् । लक्ष्मी निर्विशतस्तस्य' च्यावालं परां श्रियम् ॥२०१॥ मानसोऽस्य प्रवीचारो "विष्वाणोऽप्यस्य मानसः । द्वाविंशतिसहस्रश्न समानां सकृदाहरेत् ॥२०२॥ तथैकादशभिर्मासैः सकृदुच्छवसितं मजेत् । ध्यरलिप्रमितोत्सेधदिन्यदेहधरः स च ॥२०३।। भर्मणेत्यच्युतेन्द्रोऽसौ प्रापत् सत्परम्पराम् । तस्मात्तदपिमिर्धमें मतिः कार्या जिनोदिते ॥२०॥ __ मालिनीच्छन्दः अथ सुललितवेषां दिव्ययोषाः सभूषाः सुरमिकुसुममालाः "सस्तचूलाः सलीलाः । मधुरविरुतगानारन्ध तानाः "समानाः प्रमदमरमनूनं निम्युरेनं सुरेनम् ॥२०५।। तथा एक-एक महादेवी अढ़ाईसौ-अढ़ाईसौ अन्य देवियोंसे घिरी रहती थी ॥१९४॥ इस प्रकार सब मिलाकर उसकी दो हजार इकहत्तर देवियाँ थीं। इन देवियोंका स्मरण करने मात्रसे हो उसका चित्त सन्तुष्ट हो जाता था-उसकी कामव्यथा नष्ट हो जाती थी॥१९५।। वह इन्द्र उन देवियोंके कोमल हाथोंके स्पर्शसे, मुखकमलके देखनेसे और मानसिक संभोगसे अत्यन्त तृप्तिको प्राप्त होता था ।।१९६।। इस इन्द्रकी प्रत्येक देवी अपनी विक्रिया शक्तिके द्वारा सुन्दर त्रियोंके दस लाख चौबीस हजार सुन्दर रूप बना सकती थी ॥१९७॥ हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गन्धर्व और नृत्यकारिणीके भेदसे उसकी सेनाकी सात कक्षाएँ थीं। उनमें से पहली कक्षामें बीस हजार हाथी थे, फिर आगेकी कक्षाओं में दूनी-दूनी संख्या थी। उसकी यह विशाल सेना किसी बड़े समुद्रकी लहरोंके समान जान पड़ती थी। यह सातों ही प्रकारकी सेना अपनेअपने महत्तर (सर्वश्रेष्ठ) के अधीन रहती थी॥१९८-१९९।। उस इन्द्रकी एक-एक देवीकी तीनतीन सभाएँ थीं। उनमें से पहली सभामें २५ अप्सराएँ थीं, दूसरी सभामें ५० अप्सराएँ थीं, और तीसरी सभामें सौ अप्सराएँ थीं।।२००। इस प्रकार ऊपर कहे हुए परिवारके साथ अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न हुई लक्ष्मीका उपभोग करनेवाले उस अच्युतेन्द्रको उत्कृष्ट विभूतिका वर्णन करना कठिन है-जितना वर्णन किया जा चुका है उतना ही पर्याप्त है ।।२०१॥ उस अच्युतेन्द्रका मैथुन मानसिक था और आहार भी मानसिक था तथा वह बाईस हजार वर्षों में एक बार आहार करता था।२०२॥ग्यारह महीने में एक बार श्वासोच्छवास लेता था और तीन हाथ ऊँचे सन्दर शरीरको धारण करनेवाला था॥२०॥ वह अच्युतेन्द्र धर्मके द्वारा ही उत्तम-उत्तम विभूतिको प्राप्त हुआ था इसलिए उत्तम-उत्तम विभूतियोंके अभिलाषी जनोंको जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे धर्ममें हीबुद्धि लगानी चाहिए ।।२०४|| उस अच्युत स्वर्गमें, जिनके वेष बहुत ही सुन्दर हैं जो उत्तम-उत्तम आभूषण पहने हुई हैं, जो सुगन्धित पुष्पोंकी मालाओंसे सहित हैं, जिनके लम्बी चोटी नीचेकी ओर लटक रही है, जो अनेक प्रकारकी लीलाओंसे सहित हैं, जो मधुर शब्दोंसे १. सुखम् । २. चतुर्विंशतिसहस्रोत्तरदशलक्षरूपाणि । ३. अनीकानाम् । ४. कक्षाभेदः । ५. महाधिरिव म..ल. । ६. अनुभवतः । ७. वर्णनयाऽलम् । ८. आहारः। ९. संवत्सराणाम् । १०. आकारवेषा। ११. श्लषषम्मिलाः । १२. उपक्रमितस्वरविश्रमस्थानभेदाः । १३. अहङ्कारयुक्ताः । १४. सुरेशम् । ८x२५० =२००० । २००+६३ +८-२०७१ । २९
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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