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## The Tenth Canto **219** His face, adorned with earrings, shone like the sun and moon. It was like the sky, adorned with stars and a rainbow. **(27)** His face, with its sweet breath, was like a blooming lotus, fragrant and beautiful. **(128)** His nose, as if meant to smell the fragrance of the face-lotus, was long and graceful. The two nostrils, facing downwards, seemed to drink the nectar of the face. **(129)** His neck, adorned with a garland of pearls, was like a beautiful creeper, holding the face-lotus. **(130)** His broad chest, adorned with precious jewels, shone like the dwelling of Lakshmi, the goddess of wealth, illuminated by lamps. **(131)** His shoulders, raised high, were like the tusks of an elephant, signifying his noble character. He was of a noble lineage, like an elephant with a strong backbone, and his stature was majestic, like an elephant. **(132)** His arms, strong and righteous, were like two pillars, protecting the world from harm. **(133)** His beautiful palms, adorned with nails like stars, were marked with the signs of the sun and moon, making them shine like the sky. **(134)** His middle part, holding the beauty of the middle of the world, was vast and magnificent. **(135)** In the middle, there was Mount Meru, adorned with a crown. **(126)**
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________________ दशमं पर्व २१९ कुण्डलोद्भासि तस्यामान् मुखमुद्भविलोचनम् । सचन्द्राकं सतारं च सेन्द्रचापमिवाम्बरम् ॥२७॥ मुखं सुरमिनिश्वासं कान्ताधरममाद् विमोः । महोत्पलमिवोगिन्नदलं सुरभिगन्धि च ॥१२॥ नासिका घ्रातुमस्येव' गन्धमायतिमादधे । अवामुखी विरेकाभ्यामौपिबन्तीव तद्रसम् ॥१२९॥ 'कन्धरस्तन्मुखान्जस्य नाललीलां दधे पराम् । मृणालवलयेनेव हारेण परिराजितः ॥१३०॥ महोर स्थलमस्यामान्महारत्नांशुपेशलम् । ज्वलदीपमिवाम्भोज वासिन्या वासगेहकम् ॥१३॥ अंसावभ्युन्नतौ तस्य दिग्गजस्येव सद्गतेः । कुम्माविव रराजाते सुवंशस्य महोन्नतेः ॥१३२॥ 'न्यायामशालिनावस्य रेजतुर्भूभुजो भुजौ । भूलोकापायरक्षार्थ क्लुप्तौ वाघ्राविवार्गलौ ॥१३३॥ नखताराभिरुद्भूतचन्द्रार्कस्फुटलक्षणम् । चारुहस्ततलं तस्य नमस्थलमिवावमौ ॥१३॥ मध्यमस्य जगन्मध्यविभ्रमं बिभ्रदयुतत् । एतता नवमाधोविस्तीर्णपरिमण्डलम्" ॥१३५।। बीचमें चूलिकासहित मेरु पर्वत है ॥१२६।। उसका मुख, सूर्य, चन्द्रमा, तारे और इन्द्रधनुषसे सुशोभित आकाशके समान शोभायमान हो रहा था। क्योंकि वह दो कुण्डलोंसे शोभायमान था जो कि सूर्य और चन्द्रमाके समान जान पड़ते थे तथा कुछ ऊँची उठी हुई भौंहोंसहित चमकते हुए नेत्रोंसे युक्त हुआ था इसलिए इन्द्रधनुष और ताराओंसे युक्त हुआ-सा जान पड़ता था ॥१२७।। अथवा उसका मुख एक फूले हुए कमलके समान शोभायमान हो रहा था क्योंकि फूले हुए कमलमें जिस प्रकार उसकी कलिकाएँ विकसित होती हैं उसी प्रकार उसके मुखमें मनोहर ओठ शोभायमान थे और फूला हुआ कमल जिस प्रकार मनोज गन्धसे युक्त होता है उसी प्रकार उसका मुख भी श्वासोच्छ्वासकी मनोझ गन्धसे युक्तथा ॥१२८॥ उसकी नाक स्वभावसे ही लम्बी थी, इसीलिए ऐसी जान पड़ती थीमानो उसने मुख-कमलको सुगन्धि सूंघनेके लिए ही लम्बाई धारण की हो। और उसमें जो दो छिद्र थे उनसे ऐसी मालूम होती थी मानो नीचेकी ओर मुँह करके उन छिद्रों द्वारा उसका रसपान ही कर रही हो ॥१२९॥ उसका गला मृणालवलयके समान श्वेत हारसे शोभायमान था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मुखरूपी कमलकी उत्तम नालको ही धारण कर रहा हो ॥१३०।। बड़े-बड़े रनोंकी किरणोंसे मनोहर उसका विशाल वक्षःस्थल ऐसा शोभायमान होता था मानो कमलवासिनी लक्ष्मीका जलते हुए दीपकोंसे शोभायमान निवासगृह ही हो ॥१३॥ वह सुविधि स्वयं दिग्गजके समान शोभायमान था और उसके ऊँचे उठे हुए दोनों कन्धे दिग्गजके कुम्भस्थलके समान शोभायमान हो रहे थे। क्योंकि जिस प्रकार दिग्गज सद्गति अर्थात् समीचीन चालका धारक होता है उसी प्रकार वह सुविधि भी सद्गति अर्थात् समीचीन आचरणोंका धारक अथवा सत्पुरुषोंका आश्रय था। दिग्गज जिस प्रकार सुवंश अर्थात् पीठकी रीढ़से सहित होता है इसी प्रकार वह सुविधि भी सुवंश अर्थात् उच्च कुलवाला था और दिग्गज जिस प्रकार महोन्नत अर्थात अत्यन्त ऊँस होता है उसी प्रकार वह सुविधि भी महोन्नत अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट था॥१३२।। उस राजाकी अत्यन्त लम्बी दोनों भुजाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो उपद्रवोंसे लोककी रक्षा करनेके लिए वनके बने हुए दो अर्गलदण्ड ही हों ॥१३३।। उसकी दोनों सुन्दर हथेलियाँ नखरूपी ताराओंसे शोभायमान थीं और सूर्य तथा चन्द्रमाके चिह्नोंसे सहित थीं इसलिए तारे और सूर्य-चन्द्रमासे सहित आकाशके समान शोभायमान हो रही थीं ॥१३४।। उसका मध्य भाग लोकके मध्य भागकी शोभाको धारण करता हुआ अत्यन्त शोभायमान था, क्योंकि लोकका मध्य भाग जिस प्रकार १.-मस्येवं म०, ल० । २. अधोमुखी। ३. रन्ध्राभ्याम् । ४. कण्ठः । ५. परिरञ्जित: म० । ६. मनोज्ञम् । ७. लक्षम्या। ८. देयं । ९. शोभा । १०. कृशत्वम् । ११. परिधिः।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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