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________________ १८६ आदिपुराणम् कोडागार नियुक्तांश्च निर्मस्य॑ घृततण्डलम् । बलादादाय वेश्यामिः संप्रायच्छत दुर्मदी ॥२२५॥ तद्वा कर्णनाद् राज्ञा वन्धितस्तीनवेदनः । चपेटाचरणाघातैः मृत्वा न्याघ्र इहामवत् ॥२२॥ वराहोऽयं मवेऽतीते पुरे विजयनामनि । सूनुर्वसन्तसेना महानन्दनृपादभूत् ॥२२०॥ हरिवाहननामासौ अप्रत्याख्यानमानतः । मानमस्थिसमं बिभ्रत् पित्रोरप्यविनीतकः ॥२२८॥ तिर्यगायुरतो बद्ध्वा नैच्छत् पित्रनुशासनम् । धावमानः शिलास्तम्मजर्जरीकृतमस्तकः ॥२२९॥ आत्तों मृत्वा वराहोऽभूद् वानरोऽयं पुरा भवे । पुरे धान्याहये जातः कुबेराख्यवणिक्सुतः ॥२३०॥ सुदत्तागर्भसंभूतो नागदत्तसमावयः । अप्रत्याख्यानमायां तां मेषशासमां श्रितः ॥२३॥ स्वानुजाया विवाहार्य स्वापणे स्वापतेयकम् । स्वाम्बायामाददानायां सुपरीक्ष्य यथेप्सितम् ॥२३२॥ ततस्तद्वचनोपायम जानना-धीर्मृतः । तिर्यगायुर्वशेनासौ गोलाबगूलत्वमित्यगात् ॥२३॥ नकुलोऽयं भवेन्यस्मिन् सुप्रतिष्टितपत्तने । प्रभूत् कादम्बिको" नाम्ना लोलुपो धनलोलुपः ॥२३॥ सोऽन्यदा नृपतौ चैत्यगृहनिर्मापणोद्यते । इष्टका"विष्टिपुरुषैरानाययति लुब्धधोः ॥२३५॥ क्रोधके निमित्तसे तियच आयुका बन्ध कर लिया था ।।२२४॥ एक दिन उस दुष्टने राजाके भण्डारकी रक्षा करनेवाले लोगोंको घुड़ककर वहाँसे बलपूर्वक बहुत सा घी और चावल निकालकर वेश्याओंको दे दिया ॥२२५।। जब राजाने यह समाचार सुना तब उसने उसे बँधवा कर थप्पड़, लात, घूसा आदिकी बहुत ही मार दिलायी जिससे वह तीव्र वेदना सहकर मरा और यहाँ यह व्याघ्र हुआ है ।।२२६॥ हे राजन् , यह सूकर पूर्वभवमें विजय नामक नगरमें राजा महानन्दसे उसकी रानी वसन्तसेनामें हरिवाहन नामका पुत्र हुआ था। वह अप्रत्याख्यानावरण मानके उदयसे हडीके समान मानको धारण करता था इसलिए माता-पिताका भी विनय नहीं करता था ॥२२७२२८।। और इसीलिए उसे तियच आयुका बन्ध हो गया था। एक दिन यह मातापिताका अनुशासन नहीं मानकर दौड़ा जा रहा था कि पत्थरके खम्भेसे टकराकर उसका शिर फूट गया और इसी वेदनामें आतध्यानसे मरकर यह सूकर हुआ है ।।२२९।। हे राजन्, यह वानर पूर्वभवमें धन्यपुर नामके नगरमें कुबेर नामक वणिक्के घर उसकी सुदत्ता नामको बीके गर्भसे नागदत्त नामका पुत्र हुआ था वह भेंड़ेके सींगके समान अप्रत्याख्यानावरण मायाको धारण करता था ।। २३०-२३१ ॥ एक दिन इसकी माता, नागदत्तकी छोटी बहनके विवाहके लिए अपनी दूकानसे इच्छानुसार छाँट-छाँटकर कुछ सामान ले रहो थी। नागदत्त उसे ठगना चाहता था परन्तु किस प्रकार ठगना चाहिए ? इसका उपाय वह नहीं जानता था इसलिए उसी उधेड़बुनमें लगा रहा और अचानक आर्तध्यानसे मरकर तिर्यश्च आयुका बन्ध होनेसे यहाँ यह वानर अवस्थाको प्राप्त हुआ है ।। २३२-२३३॥ और हे राजन्, यह नकुल (नेवला ) भी पूर्वभवमें इसी सुप्रतिष्ठित नगरमें लोलुप नामका हलवाई था । वह धनका बड़ा लोभी था ॥२३४॥ किसी समय वहाँका राजा जिनमन्दिर बनवा रहा था और उसके लिए वह मजदूरोंसे ईंटें बुलाता था। वह लोभी मूर्ख हलवाई उन १. भाण्डागारिकान् । २. सन्तय॑ । ३. वेश्यागः । 'दाणाद्धमें तज्जदेयैः' इति चतुर्थ्यर्थे तृतीया । वेश्याय अ०, ५०, द०, स०। ४. प्रयच्छति स्म। तेनैव सूत्रेणात्मनेपदी। ५. हस्ततलपादताडनैः । ६. नेच्छत् प०,ब०। ७. पित्रानुशासनम् प० । ८. धन्याह्वये ल०। ९. कुबेराह्ववणिक्पुत्रः। कुबेराख्यो वणिक्सतः प० । १०. निजविपण्याम् । ११. वञ्चनापाय-अ०। १२. भक्ष्यकारः। १३. -णोद्यमे ल.। १४. इष्टिकाविष्ट-प०, द० । इष्टकाविष्ट-अ०।१५. वेतनपुरुषः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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