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174 The king, Vandan, repeatedly urged his son, Amittej, to take the kingdom. Though instructed, Amittej did not desire the royal fortune. He said, "If you, the divine one, wish to relinquish this kingdom, then I do not desire it either. May I not be guilty of disobeying your command. I will go to the forest with you. Whatever path you take, I will follow." Knowing his son's firm resolve, Vandan gave the kingdom to his grandson, Pundarika, a young boy who was the protector of the lineage. The king, Vandan, along with his son, Amittej, his wives, and many kings, went to the sage Gunadhar, the disciple of the Tirthankara Yashodhar, and took initiation. Sixty thousand queens, twenty thousand kings, and a thousand sons took initiation with King Vandan. At that time, Pandita, the friend of the queen, also took initiation according to her own capacity. True knowledge is that which liberates one from the cycle of birth and death. Just as the lotus wilts in the absence of the sun, so too, Lakshmimati and Anundhari were filled with sorrow at the departure of Vandan and Amittej. Those who had not taken initiation, but had gone to witness the ceremony, entered the city with the young Pundarika, led by the ministers. They were all pale with grief. Lakshmimati was deeply troubled, thinking, "A young, unknown boy has been placed on the throne of this vast kingdom. He is my grandson. How can I protect him without any support? I will send this news to the wise Vajangha today. With his guidance, this kingdom will be secure. Otherwise, it will be overrun by enemies."
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________________ १७४ आदिपुराणम् प्रदिसतामुना राज्यं भूयो भूयोऽनुवघ्नता । समादिष्टोऽप्यसौ नैच्छत् सानुजो राज्यसंपदम् ॥४०॥ सदेव यदिदं राज्यं युष्मामिः प्रजिहासितम् । नेच्छाम्यहमनेनार्य मा भूदाज्ञाप्रतीपता ॥८॥ पुष्माभिः सममेवाइंप्रयास्यामि तपोवनम् । यौमाकी या गतिःसा ममापीत्यमणीद गिरम् ॥८॥ ततस्तविश्वयं ज्ञात्वा राज्यं तत्सूनवे ददौ । पुण्डरीकाय बालाय सन्तानस्थितिपालिने ॥४३॥ स यशोधरयोगीन्द्रशिष्यं गुणधरं श्रितः । सपुत्रदारो राजर्षिरदीक्षिष्ट नृपैः समम् ॥४॥ देव्यः षष्टिसहस्राणि तत्त्र्यंशप्रमिता नृपाः । प्रभुतमन्वदीक्षन्त सहनं च सुतोत्तमाः ॥४५॥ पण्डितापि तदात्मानुरूपां दीक्षा समाददे । तदेव ननु पाण्डित्वं यत् संसारात समुद्धरेत् ॥८६॥ ततश्चक्रधरापायालक्ष्मीमतिरगाच्छुचम् । भनुन्धर्या सहोष्णांशुवियोगाचलिनी यथा ॥८॥ पुण्डरीकमयादाय बालं मन्त्रिपुरस्कृतम् । ते प्रविष्टाः पुरी शोकाद् विच्छायत्वमुपागताम् ॥४॥ ततोऽभून्महती चिन्ता लक्ष्मीमत्या महामरे । राज्ये बालोऽयम म्यक्तः स्थापितो नप्तृमाण्डकम् ॥८९॥ कथं नु पालयाम्येनं विना पक्ष बलादहम् । वज्रजस्य तन्मूलं प्रहिणोम्यय धीमतः ॥१०॥ "तेनाधिष्ठित मस्येदं राज्यं निष्कण्टकं मवेत् । अन्यथा गत "मेवैतदाक्रान्तं बलिमिर्नुपैः ॥९॥ अमिततेज नामक पुत्रके लिए देना चाहा ॥७९॥ और राज्य देनेकी इच्छासे उससे बार-बार आग्रह भी किया परन्तु वह राज्य लेनेके लिए तैयार नहीं हुआ। इसके तैयार न होनेपर इसके छोटे भाइयोंसे कहा गया परन्तु वे भी तैयार नहीं हुए ।।८०॥ अमिततेजने कहा-हे देव, जब आप ही इस राज्यको छोड़ना चाहते हैं तब यह हमें भी नहीं चाहिए। मुझे यह राज्यभार व्यर्थ मालूम होता है । हे पूज्य, मैं आपके साथ ही तपोवनको चलूँगा इससे आपकी आज्ञा भंग करनेका दोष नहीं लगेगा । हमने यह निश्चय किया है कि जो गति आपको है वही गति मेरी भी है।।८१-८२।। तदनन्तर, वनदन्त चक्रवर्तीने पुत्रोंका राज्य नहीं लेनेका दृढ़ निश्चय जानकर अपना राज्य, अमिततेजके पुत्र पुण्डरीकके लिए दे दिया। उस समय वह पुण्डरीक छोटी अवस्थाका था और वही सन्तानकी परिपाटीका पालन करनेवाला था॥८३॥ राज्यकी व्यवस्था कर राजर्षि वदन्त यशोधर तीर्थकरके शिष्य गुणधर मुनिके समीप गये और वहाँ अपने पुत्र, स्त्रियों तथा अनेक राजाओंके साथ दीक्षित हो गये॥८४॥ महाराज वज्रदन्तके साथ साठ हजार रानियोंने, बीस हजार राजाओंने और एक हजार पुत्रोंने दीक्षा धारण की थी ॥८५॥ उसी समय श्रीमतीकी सखी पण्डिताने भी अपने अनुरूप दीक्षा धारण की थी-व्रत ग्रहण किये ये । वास्तवमें पाण्डित्य वही है जो संसारसे उद्धार कर दे ॥८६॥ तदनन्तर, जिस प्रकार सूर्यके वियोगसे कमलिनी शोकको प्राप्त होती है उसी प्रकार चक्रवर्ती वनदन्त और अमिततेजके वियोगसे लक्ष्मीमती और अनुन्धरी शोकको प्राप्त हुई थीं ॥७॥ पश्चात् जिन्होंने दीक्षा नहीं ली थी मात्र दीक्षाका उत्सव देखनेके लिए उनके साथ-साथ गये थे ऐसे प्रजाके लोग, मन्त्रियों-द्वारा अपने आगे किये गये पुण्डरीक बालकको साथ लेकर नगरमें प्रविष्ट हुए। उस समय वे सब शोकसे कान्तिशून्य हो रहे थे ।।८८॥ तदनन्तर लक्ष्मीमतीको इस बातकी भारी चिन्ता हुई कि इतने बड़े राज्यपर एक छोटा-सा अप्रसिद्ध बालक स्थापित किया गया है । यह हमारा पौत्र (नाती) है। बिना किसी पक्षकी सहायताके मैं इसकी रक्षा किस प्रकार कर सकूँगी। मैं यह सब समाचार आज ही बुद्धिमान वाजंघके पास भेजती हूँ। उनके १. समीचीनमेव । २. प्रहातमिष्टम् । ३. प्रतिकूलता। ४. सैव द०, स०, म०, ल०। ५. विंशतिसहस्रप्रमिताः । ६. 'दार्थेऽनुना' इति द्वितीया। ७. अङ्गीकृतम् । ८. ते प्रविष्टे पुरी शोकाद्विच्छाय त्वमुपागते १०, ट.।तं प्रविष्टाः पुरो शोकाद्विच्छायत्वमुपागताः स० ते लक्ष्मीमत्यनुन्धयों। ९. प्रविष्टे प्रविविशतुः । १०. नप्तृभाण्डकः अ० । पौत्र एव मूलधनम् । ११. सहायबलाद् । १२. तत्कारणम् । १३ प्राहिणोम्यद्य ब०, १०।१४. वनजंघेन । १५. स्थापितम् । १६. नष्टम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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