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The Eighth Chapter 173 Why do these wise men strive for these fleeting pleasures, which come and go like the wind? 69 Health, wealth, youth, and happiness are all as fleeting as a rainbow. 70 Just as a drop of water on a blade of grass is destined to fall, so too is the life of living beings destined to end. 71 The Yama Raja, ever ready for battle, leads his army of old age, followed by the strong soldiers of various diseases, and the Kshaya, like wild beasts, are always by his side. 72 These desires, with their fiery flames of thirst, burn the senses, and the pain arising from them destroys life. 73 In this world, happiness is fleeting, while sorrow is abundant. What is there to be content with? How can one be content? 74 The desire for worldly pleasures brings suffering first, then dissatisfaction during enjoyment, and finally regret after separation. 75 The family that is prosperous today may be poor tomorrow, and the one that is suffering today may be prosperous tomorrow. 76 This worldly happiness is a source of sorrow, wealth is accompanied by destruction, union is followed by separation, and prosperity is followed by misfortune. 77 Thus, seeing the impermanence of the world, the Chakravarti considered these fleeting pleasures as poison. 78 Having renounced these pleasures, the Chakravarti, with his boundless energy, wished to give his kingdom to his son. 79
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________________ अष्टमं पर्व १७३ मोगान् मोगाडु मीहन्ते कथमेतान् मनस्विनः । ये विलोमयितुं जन्तूनायान्ति च वियन्ति च ॥ ६९ ॥ पुरारोग्यमैश्वर्यं यौवनं सुखसंपदः । वस्तुवाहनमन्यच्च सुरक्षापवदस्थिरम् ॥ ७० ॥ तृणामलग्नवार्बिन्दुर्विनिपातोन्मुखो यथा । तथा प्राणभृतामायु विलासो विनिपातुकः ॥ ७१ ॥ अग्रेसरीजरातङ्काः" पाणिग्राहा' स्तरस्विनः । कषायाटविकैः सार्द्धं 'यमराडु मरोद्यमी ॥७२॥ अक्षग्रामं दन्त्येते "संतर्षविषमार्चिषा । विषया विषमोत्थान वेदना "लूषयन्त्यसून् ॥७३॥ प्राणिनां सुखभल्पीयो भूयिष्ठं दुःखमेव तु । संसृतौ तदिहाश्वासः कस्कः " "कौतस्कुतोऽथवा ॥ ७४ ॥ तनुमान् विषयानीप्सन् क्लेशः प्रागेव ताम्बति । भुञ्जानस्तृप्तयोगेन वियोगेऽनुशयानकः ॥७५॥ यदद्याढ्यतरं तृप्तं श्वस्तदाख्यचरं भवेत् । यच्चाद्य व्यसनैर्भुक्तं तत्कुलं" श्वोवसीयसम् ॥७६॥ सुखं दुःखानुबन्धीदं सदा सनिधनं धनम् । संयोगा विप्रयोगान्ता विपदन्ताश्च संपदः ॥ ७७ ॥ इत्यशाश्वतिकं विश्वं जीवलोकं " विलोकयन्" । विषयान् विषवन्मेने पर्यन्तविरसानसौ ॥ ७८ ॥ इति निर्विद्य मोगेषु साम्राज्यमरमात्मनः । सूनवेऽमिततेजोऽभिधानाय स्म प्रदित्सति ॥ ७९ ॥ १३१४ समान शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाली है ||६८|| जो भोग संसारी जीवोंको लुभानेके लिए आते हैं। और लुभाकर तुरन्त ही चले जाते हैं ऐसे इन विषयभोगोंको प्राप्त करनेके लिए हे विद्वज्जनो, तुम क्यों भारी प्रयत्न करते हो ॥६९॥ शरीर, आरोग्य, ऐश्वर्य, यौवन, सुखसम्पदाएँ, गृह, सवारी आदि सभी कुछ इन्द्रधनुषके समान अस्थिर हैं ॥ ७० ॥ जिस प्रकार तृणके अग्रभाग पर लगा हुआ जलका बिन्दु पतनके सम्मुख होता है उसी प्रकार प्राणियोंकी आयुका विलास पतनके सम्मुख होता है || ७१ || यह यमराज संसारी जीवोंके साथ सदा युद्ध करनेके लिए तत्पर रहता है । वृद्धावस्था इसकी सबसे आगे चलनेवाली सेना है, अनेक प्रकारके रोग पीछेसे सहायता करनेवाले बलवान् सैनिक हैं और कषायरूपी भील सदा इसके साथ रहते हैं ||१२|| ये विषय - तृष्णारूपी विषम ज्वालाओंके द्वारा इन्द्रिय- समूहको जला देते हैं और विषमरूपसे उत्पन्न हुई वेदना प्राणोंको नष्ट कर देती है || ७३|| जब कि इस संसार में प्राणियोंको सुख 'तो अत्यन्त अल्प है और दुःख ही बहुत है तब फिर इसमें सन्तोष क्या है ? और कैसे हो सकता है ? ||७४ || विषय प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ यह प्राणी पहले तो अनेक क्लेशोंसे दुःखी होता है फिर भोगते समय तृप्ति न होनेसे दुःखी होता है और फिर वियोग हो जानेपर पश्चात्ताप करता हुआ दुःखी होता है । भावार्थ - विषय - सामग्रीको तीन अवस्थाएँ होती हैं - १ अर्जन, २ भोग और ३ वियोग । यह जीव उक्त तीनों ही अवस्थाओंमें दुःखी रहता है ।। ७५ ।। जो कुल आज अत्यन्त धनाढ्य और सुखी माना जाता है वह कल दरिद्र हो सकता है और जो आज अत्यन्त दुःखी है वही कल धनाढ्य और सुखी हो सकता है ॥७६॥ यह सांसारिक सुख दुःख उत्पन्न करनेवाला है, धन विनाशसे सहित है, संयोगके बाद बियोग अवश्य होता है और सम्पत्तियोंके अनन्तर बिपत्तियाँ आती हैं || ||७७|| इस प्रकार समस्त संसारको अनित्यरूपसे देखते हुए चक्रबर्तीने अन्तमें नीरस होनेवाले विषयोंको विषयके समान 1 -माना था ॥७८॥ इस तरह विषयभोगोंसे विरक्त होकर चक्रवर्तीने अपने साम्राज्यका भार अपने १. प्रवेष्टुम् । प्राप्तुमित्यर्थः । २. नश्यन्ति । ३. जीवितस्फूर्तिः । ४. पतनशीलः । ५. स्वापमः । ६. पृष्ठवर्तिनः । ७. वेगिनः । 'तरस्वी त्वरितो वेगी प्रजवी जयनो जवः । ' ८. अटवीचरैः । ९. यमरामरणोचमी अ० । १०. युद्धसन्नद्धो भवति । ११. वाञ्छा । १२. चोरयन्ति । १३. 'कस्काविषु' इति सूत्रात् सिद्धः । १४. अयमपि तथैव । १५. अनुशयान एवं अनुशयानकः, पश्चात्तापवान् । १६. 'कुलमन्वयस तिगृहोत्वस्याश्रमेषु च ।' १७. मंगलार्थे निपातोऽयम् । १८ मर्त्यलोकम् । १९. विचारयन् । २० निर्वेदपरो भूत्वा । २१. प्रदातुमिच्छति ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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