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अष्टमं पर्व
अथ तत्रावसद्दीर्घ स कालं चक्रिमन्दिरे । नित्योत्सवे महाभोगसंपदा सोपभोगया ॥ १ ॥ श्रीमती स्तनसंस्पर्शात् तन्मुखाब्जविलोकनात् । तस्यासीन्महती प्रीति: प्रेम्णे वस्त्विष्टमाश्रितम् ॥२॥ तन्मुखाब्जाद् रसामोदा वाहरातृपन् नृपः । मधुव्रत इवाम्भोजात् कामसेवा न तृप्तये ॥३॥ मुखेन्दुमस्याः सोऽपश्यन् निर्निमेषोत्कया दृशा । कान्तिमद्दशनज्योतिर्ज्योत्स्नया सततोज्ज्वलम् ||४॥ अपाङ्गवीक्षितै 'लीला स्मितैश्च कलभाषितैः । मनो बबन्ध सा तस्य "स्वस्मिन्नत्यन्तभासुरैः ॥५॥ त्रिवलीवीचिरम्येऽसौ नामिका वर्त्तशोमिनि । उदरे कृशमध्याया रेमे नया इव हदे ॥ ६ ॥ नितम्बपुलिने तस्याः स चिरं " धृतिमातनोत् । कालीविहङ्गविरुते" रम्ये हंसयुवायितः || ७ || तरस्तनांशु "कमाहृत्य तत्र व्यापारयन् करम् । मदेम इव सोऽमासीत् पद्मिन्याः कुड्मलं स्पृशन् ||८॥ स्तनचक्राह्वये तस्याः श्रीखण्डद्रवकर्दमे । उरःसरसि रेमेऽसौ सत्कुचांशुकशैवले ||९||
विवाह हो जाने के बाद वज्रजंघने, जहाँ नित्य ही अनेक उत्सव होते रहते थे ऐसे चक्रवर्तीके भवनमें उत्तम-उत्तम भोगोपभोग सम्पदाओंके द्वारा भोगोपभोगोंका अनुभव करते हुए दीर्घकाल तक निवास किया था ॥ १ ॥ वहाँ श्रीमतीके स्तनोंका स्पर्श करने तथा मुखरूपी कमलके देखने से उसे बड़ी प्रसन्नता होती थी सो ठीक ही है क्योंकि इष्ट वस्तुके आश्रयसे सभीको प्रसन्नता होती है ||२|| जिस प्रकार भौंरा कमलसे रस और सुवासको ग्रहण करता हुआ कभी सन्तुष्ट नहीं होता उसी प्रकार राजा वज्रजंघ भी श्रीमतीके मुखरूपी कमलसे रस और सुवासको ग्रहण करता हुआ कभी सन्तुष्ट नहीं होता था । सच है, कामसेवनसे कभी सन्तोष नहीं होता है || ३ ||श्रीमतीका मुखरूपी चन्द्रमा चमकीले दाँतोंकी किरणरूपी चाँदनी से हमेशा उज्ज्वल रहता था इसलिए वज्रजंध उसे टिमकाररहित लालसापूर्ण दृष्टिसे देखता रहता था ||४|| श्रीमतीने अत्यन्त मनोहर कटाक्षावलोकन, लीलासहित मुसकान और मधुर भाषणोंके द्वारा उसका चित्त अपने अधीन कर लिया था ||५|| श्रीमतीको कमर पतली थी और उदर किसी नदीके गहरे कुण्डके समान था । क्योंकि कुण्ड जिस प्रकार लहरोंसे मनोहर होता है उसी प्रकार उसका उदर भी त्रिवलिसे (नाभिके नीचे रहनेवाली तीन रेखाओंसे) मनोहर था और कुण्ड जिस प्रकार आवर्तसे शोभायमान होता है उसी प्रकार उसका उदर भी नाभिरूपी आवर्तसे शोभायमान था । इस तरह जिसका मध्य भाग कृश है ऐसी किसी नदीके कुण्डके समान श्रीमतीके उदर प्रदेशपर वह वज्रजंघ रमण करता था ||६|| तरुण हंसके समान वह वज्रजंघ, करधनीरूपी पक्षियोंके शब्दसे शब्दायमान उस श्रीमतीके मनोहर नितम्बरूपी पुलिनपर चिरकाल तक क्रीडा करके सन्तुष्ट रहता था ॥ ७॥ स्तनोंसे बस्त्र हटाकर उनपर हाथ फेरता हुआ वजंघ ऐसा शोभायमान होता था जैसा कमलिनीके कुड्मल (बौड़ी) का स्पर्श करता हुआ मदोन्मत्त हाथी शोभायमान होता है || ८|| जो स्तनरूपी चक्रवाक पक्षियोंसे सहित है, चन्दनद्रवरूपी
१. -नाहरन्ना-द० । - दादाहरन्ना-अ०, प० । २. इष्टविषयोपभोगः । ३. उत्कण्ठया । ४. कान्तिरेषामस्तीति कान्तिमन्तः ते च ते दशनाश्च तेषां ज्योतिरेव ज्योत्स्ना तया । ५. वीक्षणैः । ६. कलभाषणैः । 'ध्वनी तु मधुरास्फुटे । कलो मन्द्रस्तु गम्भीरे' । ७. आत्मनि । ८. - त्यन्तबन्धुरैः अ०, प०, म०, स० द० । ९. इवाहदे अ०, स० । १०. संतोषम् । ११. ध्वनौ । १२. कुचांशुक - ८० । उरोजाच्छादनवस्त्रविशेषः ।