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________________ १५६ महापुराणम् वस्तुवाहन सर्वस्वं लब्धमेवासकृन्मया । किं तेनालब्धपूर्व नः कम्यारनं प्रदीयताम् ॥१९८॥ इति विज्ञापितस्तेन चक्रभृत् प्रत्यपद्यत । तथास्तु संगमो यूनोरनुरूपोऽनयोरिति ॥ १९९ ॥ प्रकृत्या सुन्दराकारो वज्रजङ्गोऽस्त्वयं वरः । पतिंवरा गुणैर्युक्ता श्रीमती चास्तु सा वधूः || २००|| जन्मान्तरानुबद्धं च प्रेमास्त्यवानयोरतः । समागमोऽस्तु चन्द्रस्य ज्योत्स्नायास्तु यथोचितः ।। २०१ || प्रागेव चिन्तितं कार्यं मयेदमतिमानुषम् । विधिस्तु प्राक्तरामेव सावधानोऽत्र के वयम् ||२०२॥ इति चक्रधरेणोकां वाचं संपूज्य पुण्यधीः । वज्रबाहुः परां कोटिं प्रीतेरध्यारुरोह सः ।।२०३ ।। वसुन्धरा महादेवी पुत्रकल्याणसंपदा । तथा प्रमदपूर्णाङ्गी न स्वाङ्गे नम्वमात्तता ॥ २०४ ॥ सा तदा सुतकल्याणमहोत्सवसमुद्गतम् । रोमाञ्चमन्वितं भेजे प्रमदाङ्कुर सनिभम् || २०५|| मन्त्रिमुख्यमहामाध्यसेनापतिपुरोहिताः । "सामन्ताश्च सपौरास्तस्कल्याणं बहुमेनिरे ॥ २०६ ॥ कुमारो वज्रजोऽयमनङ्गसदृशाकृतिः । श्रीमतीयं रतिं रूपसंपदा निर्जिगीषति ॥ २०७ ॥ अमिरूपः कुमारोऽयं सुंरूपा कन्यकानयोः । अनुरूपोऽस्तु संबन्धः सुरदम्पतिलीलयोः ॥२०८ || इति प्रमदविस्तारमुद्वहत् तत्पुरं तदा। राजवेश्म च संवृत्तं श्रियमन्यामिवाश्रितम् ॥ २०५ ॥ स्वामिन्, अपने भानजे व जंघको पुत्री देनेके लिए प्रसन्न होइए । मैं आशा करता हूँ कि मेरी प्रार्थना सफल हो और यह कुमार वञ्चजंघ ही उसका पति हो ॥ १९७॥ हे देव, धन, सवारी आदि वस्तुएँ तो मुझे आपसे अनेक बार मिल चुकी हैं इसलिए उनसे क्या प्रयोजन है ? अबकी बार तो कन्या - रत्न दीजिए जो कि पहले कभी नहीं मिला थी ।। १९८ ।। इस प्रकार राजा हुने जो प्रार्थना की थी उसे चक्रवर्तीने यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि आपने जैसा कहा है वैसा ही हो, युवावस्थाको प्राप्त हुए इन दोनों का यह समागम अनुकूल ही है ।।१९९|| स्वभाव से ही सुन्दर शरीरको धारण करनेवाला यह वज्रजंघ वर हो और अनेक गुणोंसे युक्त कन्या श्रीमती उसकी वधू हो ||२००|| इन दोनोंका प्रेम जन्मान्तरसे चला आ रहा है इसलिए इस जन्ममें भी चन्द्रमा और चाँदनीके समान इन दोनोंका योग्य समागम हो । २०१ || इस लोकोत्तर कार्यका मैंने पहलेसे ही विचार कर लिया था । अथवा इन दोनोंका दैव ( कमका उदय ) इस विषय में पहलेसे ही सावधान हो रहा है। इस विषयमें हम लोग कौन हो सकते हैं ? ||२०२|| इस प्रकार चक्रवर्तीके द्वारा कहे हुए वचनोंका सत्कार कर वह पवित्र बुद्धिका धारक राजा वज्रबाहु प्रीतिकी परम सीमापर आरूढ़ हुआ - अत्यन्त प्रसन्न हुआ || २०३ ।। उस समय वाजंघकी माता वसुन्धरा महादेवी अपने पुत्रकी विवाहरूप सम्पदासे इतनी अधिक हर्षित हुई कि अपने अंग में भी नहीं समा रही थी || २०४ || उस समय वसुन्धराके शरीर में पुत्रके विवाहरूप महोत्सवसे रोमांच उठ आये थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो हर्षके अंकुर ही हों ॥। २०५ ।। मंत्री, महामंत्री, सेनापति, पुरोहित, सामन्त तथा नगरवासी आदि सभी लोगोंने उस विवाहकी प्रशंसा की ।। २०६ ।। यह कुमार व जंघ कामदेवके समान सुन्दर आकृतिका धारक है और यह श्रीमती अपनी सौन्दर्य - सम्पत्तिसे रतिको जीतना चाहती है ।। २०७ ।। यह कुमार सुन्दर है और यह कन्या भी सुन्दरी है इसलिए देव-देवाङ्गनाओंकी लीलाको धारण करनेवाले इन दोनोंका योग्य समागम होना चाहिए ।। २०८ ।। इस प्रकार आनन्दके विस्तारको धारण करता हुआ वह नगर बहुत ही शोभायमान हो रहा था और १. - नयोरिव प० । नयोरति अ० । २. मानुषमतिक्रान्तः । ३. सममात्तदा अ०, प०, स०, द० ल० । माति स्म । ४. व्याप्तम् । ५. नायकाः । ६० सपोरास्तु स० । ७. मनोज्ञः । ८. मनोज्ञा । प्राप्तरूपसुरूपाभिरूपा बुधमनोज्ञयोरित्यभिधानात् । ९. सम्यग् वर्तते स्म ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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