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________________ ११८ आदिपुराणम् इति तद्वचनादेतत् स सर्वमकरोत् कृती । स्वनियोगानतिक्रान्ति: महतां भूषणं परम् ॥२७७॥ निष्टसकनकच्छायः सप्तहस्तोचविग्रहः । वसामरणमालाः सहजैरेवं भूषितः ॥२७॥ सुगन्धिवन्धुरामोद निःश्वासो लक्षणोज्ज्वरूः । स विम्यानन्यभूद् भोगान् अणिमादिगुणैर्युतः ॥२७९॥ भेजे वर्षसहस्रेण मानसीं सतनुस्थितिम् । पमेणकेन चोच्छवासं प्रवीचारोऽस्य कायिकः ॥२८॥ तनुच्छायामिवाग्लानिं दधानः सजमुज्ज्वलाम् । शरत्काल इवायत्त स दिव्यमरजोऽम्बरम् ॥२८॥ सहस्राण्यभवन् देव्यः चत्वार्यस्य परिप्रहः । चतस्राव महादेव्यः चारुलावण्यविभ्रमाः ॥२८२॥ स्वयंप्रभाग्रिमा देवी द्वितीया कनकप्रभा । कनकादिकतान्यासीद् देवी विद्युल्लतापरा ॥२८३॥ रामामिरमिरामाभिराभिोगाननारतम् । मुनानस्यास्य कालोऽगादनल्पः पुण्यपाकजान् ॥२८॥ तदायुर्जलधेमध्ये 'वीचीमाला इवाकुलाः । विलीयन्ते स्म भूयस्यो देवः स्वायुःस्थितियुतेः ॥२८५॥ पल्योपमपृथक्त्वाँ वशिष्टमायुर्यदास्य च । तदोदपादि पुण्यैः स्वैः प्रेयस्यस्य स्वयंप्रभा ॥२८॥ अथ सा कृतनेपथ्या प्रमातरलविग्रहा। पत्युर गता रेजे कल्पश्रीरिव रूपिणी ॥२८॥ सैषा स्वयंप्रभाऽस्यासीत् परा' सौहार्दभूमिका । चिरं मधुकरस्येव प्रत्यग्रा चूतमम्जरी ॥२८॥ स्वयंप्रमाननालोकतद्गात्रस्पर्शनोत्सवः । स रेमे करिशीसक्तः करीव सुचिरं सुरः ॥२८९॥ निश्चयसे देवपर्यायकी प्राप्तिका इतना ही तो फल है । इस प्रकार कार्यकुशल ललिताङ्गदेवने उन देवोंके कहे अनुसार सभी कार्य किये सो ठीक ही है क्योंकि अपने नियोगोंका उल्लंघन नहीं करना ही महापुरुषोंका श्रेष्ठ भूषण है ।२७२-२७७। वह ललिताङ्गदेव तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान था, सात हाथ ऊँचे शरीरकाधारक था, साथ-साथ उत्पन्न हुए वसा, आभूषण और माला आदिसे विभूषित था, सुगन्धित श्वासोच्छवाससे सहित था, अनेक लक्षणोंसे उज्ज्वल था और अणिमा, महिमा आदि गुणोंसे युक्त था। ऐसा वह ललिताङ्गदेव निरन्तर दिव्य भोगोंका अनुभव करने लगा ॥२७८-२७९।। वह एक हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था, एक पक्षमें श्वासोच्छ्वास लेता था तथा स्त्रीसंभोग शरीर-द्वारा करता था ।।२८०।। वह शरीरको कान्तिके समान कभी नहीं मुरझानेवाली उज्ज्वल माला तथा शरत्कालके समान निमेल दिव्य अम्बर (वख, पक्षमें आकाश) धारण करता था ।।२८१।। उस देवक चार हजार देवियाँ थीं तथा सुन्दर लावण्य और विलास-चेष्टाओंसे सहित चार महादेवियाँ थीं ॥२८२।। उन चारों महादेवियोंमें पहली स्वयंप्रभा, दूसरी कनकप्रभा, तीसरी कनकलता और चौथी विद्युल्लता थी ।।२८।। इन सुन्दर स्त्रियोंके साथ पुण्यके उदयसे प्राप्त होनेवाले भोगको निरन्तर भोगते हुए इस ललिताङ्गदेवका बहुत काल बीत गया ।।२८४॥ उसके आयुरूपी समुद्र में अनेक देवियाँ अपनी-अपनी आयुकी स्थिति पूर्ण हो जानेसे चश्चल तरङ्गोंके समान विलीन हो चुकी थीं ।।२८५।। जब उसकी आयु पृथक्त्वपल्यके बराबर अवशिष्ट रह गयी तब उसके अपने पुण्यके उदयसे एक स्वयंप्रभा नामको प्रियपत्नी प्राप्त हुई ॥२८६।। वेष-भूषासे सुसज्जित तथा कान्तियुक्त शरीरको धारण करनेवाली वह स्वयंप्रभा पतिके समीप ऐसी सुशोभित होती थी मानो रूपवती स्वर्गकी लक्ष्मी ही हो ।।२८७।। जिस प्रकार आमकी नवीन मंजरी भ्रमरको अतिशय प्यारी होती है उसी प्रकार वह स्वयंप्रभा ललिताङ्गदेवको अतिशय प्यारी थी॥२८८।। वह देव स्वयंप्रभाका मुख देखकर तथा उसके शरीरका स्पर्श कर हस्तिनीमें आसक्त रहनेवाले १. -जरिव म०, ल० । २. मनोहरः । ३. आहारम् । ४. वस्त्रम् आकाशं च । ५. –ण्यभवद्देव्यअ०। ६. वीचिमा-प० । ७. सप्ताष्ट पञ्चषड्वा [त्रयाणामुपरि नवानामधः संख्या ] । ८. प्रियतमा। १. कृताभरणा। १०. समीप । ११. सुहृत्त्वम् । १२. अभिनवा । तीनसे अधिक और नौसे कम संख्याको पृथक्त्व कहते हैं।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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